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नीति वाक्यामृतम्
ही दानी और दर्शनीय - भव्य देखने योग्य माना जाता है क्योंकि सर्व ही गुण सुवर्ण का आश्रय लेते हैं। नीतिकार कामन्द का कथन ध्यान देने योग्य है
" राजाओं को धर्म, धन और प्रजा के भरण-पोषण रक्षण के लिए अपने खजाने को भरपूर रखना चाहिए । प्रामाणिक अर्थशास्त्रियों द्वारा अपने धन की वृद्धि का उपाय करना चाहिए । जिस प्रकार देवताओं के द्वारा अमृत पिये जाने पर चन्द्रमा शोभायमान होता है उसी प्रकार वह राजा भी जिसने अपना खजाना प्रजा की रक्षार्थ खाली कर दिया शोभायमान होता है । न्याय से उपार्जित धन ही धर्मादि कार्यों में व्यय होता है और उभयलोक की सिद्धि होती है । अतः मनीषियों को न्यायपूर्वक अर्थ सञ्चय करना चाहिए। कहा भी है
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न्यायेनोपायते यच्च तदल्पमपि भूरिशः I विन्दुशोऽध्यमृतं साधु क्षाराब्धेवारिसंचयात् ।।
अर्थात् न्याय से उपार्जित थोड़ा भी धन बहुत माना जाता है। क्योंकि लवण समुद्र के जल की अपेक्षा अमृत एक बिन्दु भी श्रेष्ठ है । धन न्यायपूर्वक कमाना चाहिए ।
एक मात्र धन सम्पत्ति ही धन नहीं है अपितु मनुष्य के विशिष्ट विशिष्ट गुण भी धन हैं और जीवन में यत्रतत्र सिद्धि प्रदान कराते हैं यथा -
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विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम् ॥14॥
नी, श्लो.
अर्थात् विदेशों में विद्या धन है, संकटों में बुद्धि धन है, परलोक में धर्म धन है और शील निश्चय से सर्वत्र धन है | 14 || सारांश यह है कि शीलाचार, सदाचारपूर्वक ही शुद्धधन उपार्जन कर जीवनयापन करना चाहिए । धनाढ्य होने का उपाय
"सोऽर्थस्य भाजनं योऽर्थानुबन्धेनार्थमनुभवति ||2 | "
अन्वयार्थ (सः) वह (अर्धस्य) धन का ( भाजनम्) पात्र है (यः) जो ( अर्थानुबन्धेन ) अर्थोपार्जन के साधनों के द्वारा (अर्थम्) धन को ( अनुभवति) भोग में अनुभव करते हैं ।
जो अर्थशास्त्र की पद्धति के अनुसार व्यापारादि कर धनोपार्जन, रक्षण और व्यय करते हैं वे ही धनाढ्य होते
विशेषार्थ :- अर्थशास्त्र धन का विश्लेषण करता है। अर्थ का सञ्चय करना, संचित की वृद्धि करना, उपलब्ध का विनिमय करना आदि का परिज्ञाता धन का अर्जन, रक्षण और खर्च विधिवत् करता है और धनपति बन जाता है।
विद्वान वर्ग ने इसी अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए लिखा है
अर्थानुबन्धमार्गेण योऽर्थ संसेवते सदा स तेन मुच्यते नैव कदाचिदिति निश्चयः
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