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नीति वाक्यामृतम् निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक क्षेत्र में नियंत्रण आवश्यक है । नियमित रूप से किया गया प्रत्येक कार्य शोभा पाता है, सीमानुसार एवं क्रमानुसार तीनों ही पुरुषार्थ सेवनीय हैं । नीतिज्ञ को मर्यादानुसार इनका उपभोग करना चाहिए । "बुद्धिमान का कर्तव्य"
स खलु सुधीर्योऽमुत्र सुखाविरोधेन सुखमनुभवति 147।
अर्थ-अन्वयार्थ :- (यो) जो भव्य (अमुत्र) परलोक सम्बन्धी (सुखाविरोधेन) सुख का विरोध न कर (सुखम्) वर्तमान सुख (अनुभवति) अनुभव करता है (सः) वह (खलु) निश्चय से (सुधीः) बुद्धिमान (अस्ति) है ।
जो नीतिपूर्वक धर्म का रक्षण करते हुए वर्तमान उपलब्ध सुख भोगता है वही मतिमान है क्योंकि धर्म परभव में भी फलित रहेगा।
विशेषार्थ :- सुख व दुख में प्रत्येक दशा में मतिमान को धर्म सेवन करना चाहिए । कहा भी है - श्री गुणभद्रस्वामी ने
सुखितस्य दुःखितस्य च संसारे धर्म एव तव कार्यः । सुखितस्य तदभिवृद्धयै दुःखभुजस्तदुपघाताय ।।18॥
आ.नु, अर्थ :- सुखी हो या दुखी सभी को धर्माचरण करना चाहिए । दुखियों को सुख प्राप्ति और दुःखनाश के लिए धर्म सेक्ना चाहिए और सुखी मानव को उसकी अभिवृद्धि के लिए करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । विवेकी का कर्तव्य है निरन्तर आत्मकल्याणकारी क्रियाओं का सम्पादन करें । आचार्य श्री कहते हैं
धर्मारामतरूणां फलानि सर्वेन्द्रियार्थ सौख्यानि ।
संरक्ष्य तांस्ततस्तान्युच्चिनु यैस्तैरुपायैस्त्वम् ।। अर्थ :- इन्द्रिय विषयों के सेवन से उत्पन्न होने वाले सब सुख इस धर्म रूप उद्यान में स्थित वृक्षों (क्षमा मार्दवादि) केही फल हैं । इसलिए हे भठ्यजीव ! तू जिन किन्हीं उपायों से उन धर्म रूप उद्यान के वृक्षों के भले उत्सम फलों की सम्यक् प्रकार से रक्षा करो और इन्द्रिय विषयजन्य सुखों रूपी फलों का संचय करो । सदाचार मानव की शोभा है । शील, संयम, सदाचार के परिकर हैं । कहा भी है -
आत्म शुद्धि के साथ में, जब हो सद् व्यवहार । सतीशील सम उच्चता, तब रक्षित विधिवार 14॥
अर्थ :- रमणी के सतीत्व की भांति महत्त्व की रक्षा करना भी आत्मशुद्धिपूर्वक ही होती है । मनस्वी सदाचार पालन करते हैं ।
कुलीन पुरुषों को पंचपाप, सप्तव्यसन सेवन, रात्रिभोजन, अनछनाजल, कंदमूल भक्षण, परस्त्री सेवन आदि कुकर्मों का त्याग कर सतत् देवपूजा, पात्रदानादि उत्तम कार्य करने चाहिए । विद्वान वर्ग ने भी कहा है