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नीति वाक्यामृतम्
किन्तु विषयासक्त देखकर भी कुकर्म से नहीं बचता । नेत्रहीन गर्त में पड़े तो आश्चर्य नहीं किन्तु नेत्रसहित दीपक लेकर यदि गिर जाये तो आश्चर्य है । अतः मानवजन्म पाकर पाप कर्मों का परित्याग करना चाहिए ।। धर्मपुरुषार्थ साधक का कथन
यः कामार्थावुपह्वत्य धर्ममेवोपास्ते स पक्वक्षेत्रं परित्यज्यारण्यं कृषति 146॥
अन्वयार्थ :- (य:) जो पुरुष (कामार्थो) काम और अर्थ को (अपहत्य) त्याग कर (धर्मम्) धर्म को (एव) ही (उपास्ते) सेवन करता है (स) वह (पक्वक्षेत्र) पकी फसल को (परित्यज्य) छोड़कर (अरण्यं) वन प्रदेश को (कृषति) जोतता है ।
जिस प्रकार फसल पकने पर कोई उस क्षेत्र को छोडकर कंकरीली-वन भूमि को जोतने की चेष्टा करे तो उसे लाभविशेष नहीं होता उसी प्रकार गृहस्थ काम और अर्थ पुरुषार्थों को सर्वथा त्याग कर मात्र धर्मपुरुषार्थ सेवन करे तो कार्यकारी नहीं होता।
विशेषार्थ :- एकान्त मिथ्यात्व होता है । गृहस्थ धर्म पालक को अर्थ-धन सम्पत्ति भी अपेक्षित है । उसे न्यायोपात्त धन सञ्चय करना चाहिए और गार्हस्थ धर्म-चलाने तथा मुनिमार्ग चलाने के उद्देश्य से काम पुरुषार्थ सेवन करना भी अनिवार्य है । सागार धर्मामृत में पं. आशाधर जी ने विवाह का हेतू बताया है - "मुनीन् जनयितुं" अर्थात् साध. साध्वी उत्पन्न करने को विवाह का भी
कामोंकि जिला प्रकार सुपक्व खेती को त्याग पहाड़ी भूमि का कर्षण करना विशेष लाभप्रद नहीं होता, उसी प्रकार काम-और अर्थ (जीविका) त्यागकर मात्र धर्म का सेवन करना गृहस्थ को उचित नहीं है। पक्व क्षेत्र के धान्य के समान गृहस्थी को धर्मरूप वृक्ष के फलों-काम और अर्थ का उपभोग करना चाहिए । क्योंकि गृहस्थ भी धर्म है । आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कुरल में कहा है -
अनाथानां हि नाथोऽयं, निर्धनानां सहायकृत् ।
निराश्रितमृतानां च गृहस्थः परमः सखा ।॥2॥ अर्थ :- गृहस्थ धर्म अनाथों का नाथ है, निर्धनों के लिए सहायक मित्र है, आश्रयविहीन और मृतकों का भी परम मित्र हैं। नीतिकार रैम्य ने भी कहा है
कामार्थ सहितो धर्मों न क्लेशाय प्रजायते ।
तस्मात्ताभ्यां समेतस्तु कार्य एवं सुखार्थिभिः ।। अर्थ :- काम और अर्थ के साथ धर्म सेवन करने से मनुष्य को क्लेश नहीं होता । अतएव सुखाभिलाषियों को समानता से तीनों पुरुषार्थ सेवन करना उत्तम है । आचार्य श्री वादीभसिंह जी ने लिखा है कि
परस्पराविरोधेन त्रिवर्गोयदि सेव्यते ।
अनर्गलमतः सौख्यमपवर्गोऽप्यनुक मात् ॥ अर्थ :- एक दूसरे का विरोध या घात न करते हुए यदि तीनों पुरुषार्थों का सेवन किया जाय तो निर्बाध स्वर्ग D सुख प्राप्त होगा और अनुक्रम से अपवर्ग-मोक्ष पुरुषार्थ भी सिद्ध हो जायेगा ।
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