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________________ -. . .. नीति वाक्यामृतम् N को बुझाता है, उसी प्रणा गुट भी से , विष को प्राप्त करणे शार: अपने बन्धुजनों को ही तिरस्कृत करता है । दुर्जन या मूखों के 5 चिन्ह हैं - मूर्खस्य पञ्च चिन्हानि गर्वी दुर्वचनी तथा । हठी चापियवादी च, परोक्तं नैव मन्यते ॥ अर्थात् मूर्ख या धूर्त पुरुष के पाँच चिन्ह हैं - 1. अहंकार 2. निंद्य-दुर्वचन, 3. दुराग्रह, 4. अप्रियवाद और 5. किसी का विश्वास नहीं करना । दुष्ट प्राणी कोरा अहंभाव लेकर स्व प्रशंसा और परनिन्दा करते हैं । सदैव दुर्वचनों का प्रयोग करते हैं । अपने आग्रह को छोड़ते नहीं है । कठोर, सावध, अप्रिय भाषण करते हैं । किसी का भी विश्वास नहीं करते । सन्देह के झूले में झूलते रहते हैं । कहावत् है - पकडी को छोडे नहीं, मूर्ख गधा की पूंछ शास्त्र रीति जाने नहीं, उलटी तानें मूंछ ।। इस प्रकार के प्रतारकों से भव्यों को सदा सावधान रहना चाहिए । ये स्व और पर के घातक होते हैं। पर स्त्री सेवन का फल "वनगज इव तदात्वसुखलुब्धः को नाम भवत्यास्पदमापदाम् ? 143 ॥ अन्वयार्थ :- (को नाम) कौन पुरुष (वनगज इव) जंगली हाथी के समान (तदात्वसुखलुब्धः) उस-परनारी के सेवन से प्राप्त सुख का लोभी (आपदाम्) आपत्तियों का (आस्पदम्) स्थान (भवति) होता है? सभी होते हैं। परस्त्री सेवन के सुख का लोभी कौन पुरुष जंगली हाथी के समान खेदित नहीं होता ? होते ही हैं। विशेषार्थ :- जिस प्रकार जंगली हाथी परनारी सेवन का लोलुपी नकली हथिनी पर आसक्त होकर गहरे गर्त में पडकर पीड़ित होता है और बध बन्धन सहता है । इसी प्रकार जो पुरुष परनारी पर लुब्ध होता है क्या वह कष्ट नहीं सहेगा? डेगा । भिखण्डाधिपति रावण भी इस लोक में निन्दा का पात्र बना और परलोक में नरककुण्ड दुर्गति में पड़ा। नीतिकार नारद ने भी कहा है - करिणी स्पर्श सौख्येन प्रमत्ता वनहस्तिनः । बन्धमायान्ति तस्माच्ा तदात्वं वर्जयेत् सुखम् ।। अर्थ :- काम से मत्त जंगली गज हथिनी के स्पर्श सुख से बन्धन का कष्ट भोगते हैं, इसलिए नैतिक मनुष्य को परस्त्री का उपभोग सम्बन्धी सुख छोड़ देना चाहिए । परनारी के जाल में फंसकर चारुदत्त की क्या दशा हुयी, सर्वविदित है । रावण की दशा क्या कम खराब हुयी । आज तक उसका नाम भी कोई लेना नहीं चाहता । उसने परस्त्री सीता का हरण किया पर सेवन नहीं किया तो भी महा निन्दा का पात्र बना और दुर्गति को प्राप्त हुआ । अभी तक कोई भी अपने पुत्र का नाम भी 'रावण' नहीं रखता। अत: परस्त्री धर्म रूपी वृक्ष को कुठार समान है, यश रूपी बल्ली को विध्वंस करने वाली झंझा वायु के समान है । धन को चूसने वाली जोंक हैं। यों कहो, यह परमहिला, धन, यौवन, यश, सौन्दर्य प्रतिष्ठा, धर्म का सर्वनाश करने वाली है । अतः इसका मन से भी चिन्तन नहीं करना चाहिए ।
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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