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धर्म के उल्लंघन का फल
धर्मातिक्रमाद्धनं परेऽनुभवन्ति, स्वयं तु परं पापस्य भाजनं सिंह इव सिन्धुरवधात् ॥44 ॥
अन्वयार्थ :- (धर्मातिक्रमाद्धनं) धर्म विहीन मनुष्य का अन्याय से संचित धन ( परे) दूसरे (अनुभवन्ति ) भोगते हैं (तु) निश्चय से (स्वयं) कमाने वाला तो (परं) 2 महान् ( पापस्य भाजनम् ) 3 पाप के भागी (सिंह) शेर (इव) समान है (सिन्धुरवधात्) हाथी के शिकार से ।
नीति वाक्यामृतम्
सिंह हाथी का शिकार करता है उससे श्रृंगालादि भोजन पाते हैं और हाथी को पाप सञ्चय होता है लाभ कुछ भी नहीं मिलता ।
अन्वयार्थ :संसारी प्राणी स्वयं पापार्जन करता है मोहाविष्ट होकर घर कुटुम्ब को अपना मानता है उसके निमित्त धनादि कमाता है, वे आनन्द से उपभोग करते हैं और स्वयं पापों का भार ढोता है, पापों से लिप्स होता है और दुःख भोगता है । दुर्गति का पात्र बनता है । धर्म का विघात करने वाला अज्ञानी है
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कृत्वा धर्मविघातं विषय सुखान्यनुभवन्ति ये मोहात् । आच्छिद्य तरून् मूलात् फलानि गृह्णन्ति ते पापाः ॥24 ॥
आत्मा.शा.
अर्थात् जो अज्ञ जन विषयानुरक्त हो धर्म का परित्याग कर विषयों को भोगते हैं उनका यह कृत्य, मूल से वृक्ष को उखाड़ कर फलों को गृहण करने के समान हैं। इस प्रकार की क्रिया करने वाले पापी हैं। भावि फलों का विनाश कर घोर पाप बन्ध किया । स्वयं ने कितना भोगा ? कुछ भी नहीं । अन्य ही लोग खा गये । यह जीव पुण्य व पाप का स्वयं ही कर्त्ता है स्वयं ही भोक्ता है । सगे- साथी कोई बंटाने वाला नहीं है । नीतिकार विदुर ने कहा है
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एकाकी कुरुते पापं फलं भुङक्ते महाजनः । भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ।।
आचार्य कहते हैं
अर्थ :- यह जीव अकेला ही पाप करता है और समस्त परिवार भोग भोगते हैं, वे लोग तो छूट जाते हैं किन्तु कर्ता पाप-दोष लिप्त होकर कष्ट उठाता है । इसी लोक में देखा जाता है चोर परधन चुराता है सर्व कुटुम्ब मजा- मौज उड़ाता है। जिस समय तस्कर पकड़ा जाता है तो जेल में उसे अकेले हो जाना पड़ता है, मार खाता है कष्ट सहता है। क्या खाने वाले कोई उसके स्थान पर मार खायेगा ? बेड़ियों में बंधना चाहेगा ? कोई भी नहीं चाहेगा । फिर भला परलोक की तो बात ही क्या है ?
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आप अकेला अवतरै, मरै अकेला होय । यों कहूँ या जीव को, साधी सगा न कोय || जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपना कोय | घर सम्पत्ति यह प्रकट है, पर है परजन लोय ।।
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बारह भावना