SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ----- नीति वाक्यामृतम् - वाह्य प्रदर्शन के लिए दम्भी के सब काम । रोता पर वह अन्त में, सोच बुरे निज काम ।।5।। कुरल अर्थ :- पाखण्डीजन के सभी कार्य, वाह्य प्रदर्शन के होते हैं । अन्त समय में वह पश्चाताप की ज्वाला में सुलगता और रोता है । ऐसे विघातकों से दूर रहना चाहिए । करे प्रकट तो वाह्य में, हम में प्रीति अपार । पर भीतर कुछ भी नहीं, है अनिष्ट आसार 1॥ अर्थ :- जो व्यक्ति वाद्य में अपार प्रीति का प्रदर्शन करते हैं और अन्तरंग में अनिष्ट चिन्तन करते हैं वे अपकार के ही आधार हैं। पाँव पड़े जब स्वार्थ हो, स्वार्थ बिना अति दूर । मैत्री ऐसे धूर्त की, क्या होती गुणपूर ।।2॥ खल पुरुष अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए चरणों में नतमस्तक हो जाता है । स्वार्थ सिद्ध होने पर वह दूर भाग खड़ा होता है । ऐसे खलों से बचकर ही रहना चाहिए । अत: विवेकियों को कुसंगति से बचकर रहना चाहिए । "दुष्टों का स्वरूप" अग्निरिव स्वाश्रयमेव दहन्ति दुर्जनाः 142 ॥ अन्वयार्थ :- (दुर्जनाः) दुर्जन पुरुष (अग्निः) आग के (इव) समान (स्वाश्रयम्) अपने आश्रयी को (एव) ही | (दहन्ति) जलाते हैं ।। आग लकड़ी से उत्पन्न होकर उसे ही भस्म कर देती है, उसी प्रकार दुष्टजन अपने ही पालक को दाव पाकर नष्ट कर देते हैं । विशेषार्थ :- दुर्जन मानव अपने आश्रय-कुटुम्ब को भी नष्ट कर देते हैं, अन्य जनों की तो बात ही क्या है? जिस प्रकार अग्नि प्रथम उस लकड़ी को भस्म करती है जिससे वह उत्पन्न हुयी है पुनः अन्य ईंधन को जलाती है उसी प्रकार स्वार्थी-लालची, दुर्जन, धूर्त व्यक्ति प्रथम अपने भाई-बन्धु परिवार को बरबाद करता है, पुनः अन्य जनों का अपकार करते हैं । नीतिकार वल्लभ भी कहते हैं - धूमः पयोधरपदं कथमप्यवाप्यै। षोऽम्बुभिः शमयति ज्वलनस्य तेजः ।। दैवादवाप्य खलु नीच जनः प्रतिष्ठान्। प्रायः स्वयं बन्धुजनमेव तिरस्करोति ।। अर्थ :- जिस प्रकार धूम अग्नि से उत्पन्न होता है और वह किसी प्रकार बादल बनकर जलवृष्टि कर उसी अग्नि ।। 46
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy