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नीति वाक्यामृतम्
स्वयं रोग से मुक्त होने का इच्छुक किसी अन्य की प्रेरणा से औषधि सेवन नहीं करता, अपितु स्वेच्छा से स्वयं ही करता है उसी प्रकार संसार दुःखों से निवृत्ति पाने का अभिलाषी स्वयं धर्माचरण में प्रवृत्त होता I
विशेषार्थ :- जिस प्रकार रोग ग्रस्त पुरुष स्वयं उचित औषधि का सेवन करता है, उसे किसी की प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार आत्मकल्याणच्छु उसके साधक धर्म, पुण्य क्रियाओं का अनुष्ठान स्वयं आत्मप्रेरणा से ही करता है। श्रद्धा भक्तिपूर्वक किये गये धर्मानुष्ठान अचिन्त्यफलप्रद होते हैं । कहा भी है
पापात् दुःखं धर्मात्सुखमिति सर्वजनसुप्रसिद्धमिदम् । तस्माद्विहाय पापं चरतु सुखार्थी सदा धर्मम् ॥8 ॥
आत्मानुशा.
अर्थ :- सर्व साधारणजन भी इस बात को जानते हैं कि पाप दुःख का हेतू है और धर्म से आत्मसुख प्राप्त होता है। इसीलिए सुखेच्छुओं को सदैव धर्माचरण करना चाहिए । धर्म अद्भुत शक्ति है । उससे कोई याचना नहीं करनी पड़ती । कहा है श्री आचार्य गुणभद्रस्वामी ने अपने आत्मानुशासन में
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संकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणेरपि असंकल्प्यमसंचिन्त्यं फलं धर्मादवाप्यते
अर्थ :- कल्पवृक्ष संकल्प (याचना) से इच्छित वस्तु देते हैं, चिन्तामणिरत्न चिन्तवन करने से फलप्रदान करता है किन्तु धर्म बिना याचना और चिन्तवन के ही सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को प्रदान करता है । फिर कौन ऐसा सुबुद्ध भव्य होगा जो स्वयं स्वेच्छा से धर्माचरण नहीं करे ? करते ही हैं । नीतिकार भागुरि ने भी कहा है कि
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परोपरोधतो धर्मं भेषजं च करोति यः आरोग्यं स्वर्गगामित्वं न ताभ्यां संप्रजायते
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जो मनुष्य दूसरों के अनुरोध से औषधि और धर्म का सेवन करता है उसे क्रमशः आरोग्य लाभ और स्वर्ग सुख प्राप्त नहीं होते । संसार में कहावत है, "कहे से कोई गधे पर नहीं चढता" अर्थात् किसी भी कार्य की सिद्धि स्वयं की अन्तप्रेरणा से होती है । अतः प्रत्येक मानव को धर्म के प्रति स्वतः आस्था दृढ करनी चाहिए ।
धर्मानुष्ठान काल में होने वाली प्रवृत्ति
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धर्मानुष्ठाने भवत्यप्रार्थितमपि प्रातिलोम्य लोकस्य ॥137 ॥
अन्वयार्थ :(लोकस्य ) संसारी जीवों के (धर्मानुष्ठाने) धार्मिक क्रियाओं में ( अप्रार्थितम् ) नहीं चाहने पर (अपि) भी (प्रातिलोम्य) विपरीतता विघ्न (भवति) हो जाता है ।
धर्मानुष्ठान करते समय मनुष्यों को अनिच्छित विघ्न उपस्थित हो जाते हैं ।
भावार्थ : " श्रेयांसि बहु विघ्नानि " कल्याण कारक कार्यों में अनेकों विघ्न अनायास आ खड़े होते हैं । इसलिए धार्मिक कार्यों में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। कहावत है "उतावला सो बावरा" उतावली करने वाले मूर्ख बनते हैं क्योंकि बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय" स्थिरता के बिना पूर्वापर विचार नहीं हो सकता अतः कार्य निर्विघ्न