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________________ नीति वाक्यामृतम् - अर्थ - जो व्यक्ति धर्म के फल का अनुभव करता हुआ भी धर्म कार्य में मन्द हो प्रवृत्ति करता है वह मूर्ख, जड़ अज्ञानी, और पशु से भी अधिक पशु बुद्धि वाला है, अर्थात् जिस वृक्ष के मधुर फलों का आस्वादन करता हो और उसी की जड़ काटे वह महामूर्ख ही है । इसी प्रकार धर्मरूपी वृक्ष का फल विषय-भोग सामग्री को प्राप्त कर उन्मत्त होने वाला भी भविष्य के सुमधुर फल स्वर्ग-मोक्षादि नाश करता है । जो स्वयं अधर्म व पाप क्रियाओं में प्रवृत्त नहीं होता और न अन्य को ही कुमार्गारुढ की प्रेरणा देता है वही व्यक्ति विद्वान पण्डित, प्रज्ञाशील, बुद्धिमान और पण्डित समझा जाना चाहिए । पुण्य से पुण्यार्जन करना श्रेयस्कर है न कि पुण्यफल भोग कर पाप कर्म अर्जन करना । गुणभद्र स्वामी ने कहा कृत्वा धर्मविघातं फलान्यनुभवन्ति ये मोहा दाच्छिद्यतरुन् मूलात् फलानि गृह्णन्ति ते पापा: 11 आत्मा.नु. ॥ अर्थ :जो अज्ञानी मानव मोहाविष्ट होकर धर्म का पुण्य कार्यों का विनाश कर उनका फल भोगता है, वह महामूर्ख है मानों वृक्ष की जड़ काटकर उसके फलों का सेवन करने वाले के सदृश भविष्य को दुःखमय बनाता है । मूल से वृक्ष नष्ट किये जाने पर आगामी काल में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा । फिर भला फल कहाँ ? इसी प्रकार पूर्व संत्रित पुण्य का फल भोगे और वर्तमान में नवीन उपार्जन नहीं करे तो अगले भव में क्या पायेगा ? कुछ भी नहीं । अतएव विवेकी भव्यजन को धर्म संरक्षण करते हुए उसका फलानुभव करना चाहिए । श्री गुणभद्राचार्य कहते धर्मादवाप्त विभवो धर्मं प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु । कृषीवलस्तस्य वीजादवाप्तधान्यः वीजमिव 11 आ.नु.शा. अर्थ :- जिस प्रकार चतुर कृषक, खेती पकने पर उपलब्ध धान्य में से सुन्दर, योग्य धान्य की आगामी फसल के लिए बीज निकाल कर प्रथम रख देता है। शेष धान्य का उपभोग करता है उसी प्रकार सुज्ञानी भव्यजनों का कर्त्तव्य है कि वे धर्म का पूर्णतः संरक्षण करते हुए उसका फलानुभव करें । अर्थात् धर्मानुष्ठान, देव, गुरु, शास्त्र की भक्ति आराधनादि करते हुए भोगानुभव करें । "विवेकी पुरुष स्वयं धर्मानुष्ठान में प्रवृत्ति करें" कः सुधीर्मेषजमिवात्महितं धर्मं परोपरोधादनुतिष्ठति ॥136 ॥ अन्वयार्थ :- (क) कौन ( सुधी:) बुद्धिमान ( भेषज ) औषधि के ( इव) समान ( आत्महितं धर्मं ) आत्मकल्याणकारी धर्म को (परः) दूसरे के (उपरोधात्) आग्रह से (अनुतिष्ठति) उस रूप आचरण करता है? कोई नहीं । 40
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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