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नीति वाक्यामृतम् ।
आत्मस्वरूपोपलब्धि के लिए धर्माचरण ही साधन है । अतः मानव जीवन प्राप्त कर धर्माचरण नहीं करने वाला स्वयं । की वंचना करता है । कहा है -
मनष्यत्त्वं समासाद्य यो न धर्म समाचरेत ।
आत्मा प्रवंचितस्तेन नरकाय निरूपितः ।। अर्थात् मनुष्य पर्याय लब्ध व्यक्ति यदि धर्माचरण पालन नहीं करता वह अपने ही को धोखा देता है और अपनी आत्मा को नरकगामी बनाता है-स्वयं नरक में जाता है । धर्म ही मनुष्य का श्रृंगार है, यही शोभा है । कहा है -
गन्धेन हीनं कुसुमं न भाति, दन्तेन हीनं वदनं न भाति ।
सत्येन हीनं वचनं न भाति, पुण्येन हीनं पुरुषो न भाति । अर्थ :- सुवास विहीन पुष्प, दन्तपंक्ति रहित मुख, सत्य शून्य वचन, जिस प्रकार शोभनीय नहीं होते, आदर नहीं पाते, उसी प्रकार पुण्य विहीन-धर्म बिना पुरुष की शोभा नहीं होती ।
सांसारिक सुख सामग्री का भी धर्म ही साधन है । पुण्य बिना भोगोपभोग भी उपलब्ध नहीं होते । जो व्यक्ति सांसारिक सुख भोगों के लिए धर्म से विमुख होते हैं वे महा मूखों की श्रेणी में अग्रसर कहलाते हैं । उनका कृत्यनिम्न
सालस्वर्गसदां छिनत्ति समिधे चूर्णाय चिन्तामणिम् । वन्ही प्रक्षिपति क्षिणोति तरणीमेकस्य शङ्को कृते 11॥ दत्ते देवगवीं स गर्दभवधू ग्राहाय गांगृहं । यः संसारसुखाय सूत्रितशिवं धर्म पुमानुज्झति ।।2॥
कस्तूरी प्रकरण से अर्थ :- जो पुरुष सांसारिक वैषयिक सुखों के लिए मोक्ष सुख देने वाले धर्म को त्याग देता है वह निंद्य, मूढ बुद्धिविहीन उस पुरुष के सदृश है जो काष्ठ-लकड़ी के लिए कल्प वृक्ष को काटता है, चूर्ण के लिए चिन्तामणि रत्न को अग्नि में होमता है, और कीलों के लिए नाव को तोडता है, और गधी को खरीदने के लिए अपनी कामधेनू को दे देता है । इन कार्यों को करने वाला लोक में निंद्य और मूर्ख तो समझा ही जाता है, परलोक में भी दुर्गति ही पाता है । अतः प्राण कण्ठगत होने पर भी उभय लोक सुखदायक धर्म का सेवन, पालन और रक्षण करना चाहिए । "एक काल में पुण्य समूह का सञ्चय दुर्लभ है"
कस्य नामक दैव सम्पद्यते पुण्य राशिः ॥3॥
अन्वयार्थ :- (कास्यनाम) किसके (एकदा) एक समय में (एव) ही (पुण्यराशिः) पुण्य समूह (सम्पद्यते) सम्पादन होता है ?
____ संसार में कौन ऐसा महान् व्यक्ति है जिसे एक काल में ही प्रभूत पुण्य प्राप्त हुआ हो ? नहीं हुआ । किन्तु धीरे-धीरे चाहे तो हो सकता है।