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नीति वाक्यामृतम् , विद्या और धन की प्रतिदिन वृद्धि करने का लाभ
"धर्मश्रुतधनानां प्रतिदिनं लवो रिहामामो भवति लादणाधिन्म: ? ॥
अन्वयार्थ :- (प्रतिदिनम्) प्रत्येक दिन (धर्मश्रुतधनानाम्) धर्म, श्रुत-ज्ञान और धन का (लव) थोडा (अपि) भी (संग्रामाणः) संचित करने पर भी (समुद्रात्) सागर से (अपि) भी (अधिकाः) अधिक विशाल (भवति) हो जाता है ।।31॥
अर्थ :- धर्म, विद्या और धन स्वल्प-स्वल्प भी अर्जित करते रहने से ये सागर से भी अधिक विशाल, विस्तृत और समूह रूप हो जाता है ।
विशेषार्थ :- पिपीलिकाएँ (चिंटिया) भी कण-कण लाकर गहरे गर्त को भी प्रपूरित कर लेती हैं । मधुमक्खियाँ बूंद-बूंद से मधु का सञ्चय कर लेती हैं । तो पूर्ण बुद्धि का धनी मानव चाहे तो क्या धर्म, विद्या और धन का अम्बार नहीं लगा सकता ? अवश्य ही संचित कर सकता है । नीतिकार वर्ग ने भी कहा है -
उपार्जयति यो नित्यं धर्म श्रुत धनानि च ।
सुस्तोकान्यप्यनन्तानि तानि स्युर्जलधिर्य था । अर्थ :- जो पुरुषार्थी-लगन से नित्य धर्म, श्रुत और धनार्जन करने में दत्तचित्त रहते हैं उनका धर्म, श्रुत, धन अति सूक्ष्म, कम, तुच्छ रहने पर भी धीरे-धीरे सागर से भी अधिक गंभीर, विस्तृत और महान ब जाता है 1 अभिप्राय यह है कि मनुष्य को इन कार्यों में प्रमाद नहीं करना चाहिए । कहा भी है -
सन्तोषं त्रिषु कर्तव्यं स्वदारे भोजने धने ।
त्रिषु नैव कर्तव्यं दाने तपसि व पाठने ।। प्राणियों को स्व स्त्री, भोजन और धन में लोलुपता का त्याग करना चाहिए । परन्तु धर्म-दान-पूजादि शुभकार्यों, सत्पात्रदान एवं विद्यार्जन में सतत् जागरूक रहना चाहिए । बिन्दु से सिन्धु बन जाता है । धर्म से धर्मात्मा परमात्मा हो जाता है और ज्ञानार्जन से कैवल्य भोगी-केवल ज्ञानी हो जाता है । इसलिए इनका सञ्चय करते रहना चाहिए । धर्म पालन में उद्योग शून्य को चेतावनी
धर्माय मित्यमनाश्रयमाणानामात्मवञ्चनं भवति ।।32॥ "धर्मायनियमजाग्रतामात्मवञ्चमम्" ॥
मु.मू.पु. में यह पाठ है अर्थ भेद कुछ नहीं है 1132॥ अन्वयार्थ :- (नित्यम्) प्रतिदिन (धर्माय) धर्म के लिए (अनाश्रयमानानाम) आश्रय नहीं लेने वालों के (आत्मवञ्चनम्) स्वयं आत्मा को धोखा देना (भवति) होता है ।
जो व्यक्ति निरन्तर आत्मस्वभाव के लिए प्रयत्न नहीं करता वह स्वयं अपने ही आत्मा की वञ्चना करता है अर्थात् ठगता है ।
विशेषार्थ :- मनुष्य जन्म महान दुर्लभ है । चारों गतियों में मनुष्य गति ही आत्म सिद्धि की साधन है ।
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