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नीति वाक्यामृतम्
लगन से पुरुषार्थी प्रतिक्षण एक-एक परमाणु के बराबर भी यदि अर्जन करता है तो समय आने पर सुमेरु पर्वत के बराबर प्रभूत सम्पत्ति होना संभव है ।
विशेषार्थ :- सम्पत्ति से अभिप्राय विद्या, धर्म व धनादि से है । मनुष्य यदि इन विषयों को अल्प मात्रा में भी ग्राह्य करता रहे तो एक दिन अवश्य पूर्णता प्राप्त करते हैं। विद्या के विषय में कहा है “अक्षर-अक्षर के पढे जडमत होत सुजान । रसरी आवत-जात के सिल पर होय निशान ||" अर्थात् एक-एक वर्ण प्रतिदिन सीखता जाय तो एक न एक दिन बहुत बड़ा स्कालर हो जाता है । इसी प्रकार जप, तप, त्याग, यम, नियमों का पालन शनैः शनैः करता रहे तो वह मानव या प्राणी पूर्ण धर्म के तट पर पहुँच जाता है । कहावत है
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घडा, ऋतु आये फल होय ।। धैर्यपूर्वक उद्यम करने पर अवश्य कार्य सिद्धि होती है । जैसा कहा जाता है "रटन्त विद्या खोदन्त पानी" रटते. रटते विद्या परिपक्व हो जाती है । क्रय-विक्रय करने वाला व्यापारी लखपति, करोड़पति, अरब-खरब पति आदि बन जाता है । कहा है
शनैः कन्था शनैः पन्था, शनैः पर्वतलंघनम् ।
शनैः शनैः हि कार्याणि, सिद्धयन्ति नाऽत्र संशयः ॥ निःसन्देह सत्पुरुषार्थी जीवन में अलौकिक कार्य कर गुजरता है । धैर्य के साथ प्रयुक्त वस्त्र शोभनीय रहता है, उत्साह से नातिमन्द गमन करता रहे तो सुखद मार्ग तय होता है, हिम्मत के साथ धीरे-धीरे कदम बढाये चलते रहने से आसानी से पर्वत की चोटी पर पहुँचना संभव हो जाता है । शान्ति और धैर्यपूर्वक कार्यों की सिद्धियाँ निःसन्देह दृष्टिगत होती हैं ।
सबका सार एक ही है, कार्यों में विघ्न आने पर भी भयभीत नहीं होना चाहिए । उन्हें मध्य में त्याग देना बुद्धिमत्ता नहीं । अपितु पुनः पुनः विन के आने पर भी उससे विरत न होकर पूर्ण करने का प्रयास करना चाहिए । धर्म कार्यों में कायर बनना उचित नहीं । नीतिकार भागुरि ने भी यही चेतावनी दी है -
नित्यं कोष विवृद्धि यः कारयेद्यत्नमास्थितः ।
अनन्तता भवेत्तस्य मेरो म्नो यथा तथा । जो उद्योगी पुरुष निरन्तर अपने खजाने की वृद्धि में प्रयत्नशील रहता है उस की धनराशि अन्त में मेरुवत विशाल हो जाती है । इसी प्रकार विवेकी अपने विद्या-धन की भी वृद्धि करे । कहा भी है -
उत्तम विद्या लीजिये, तदपि नीच पर होय पड़ो अपावन ठौर में, कञ्चन तजै न कोय ।
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