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नीति वाक्यामृतम्
विशेषार्थ :- लोक में देखा जाता है धनार्जन में, उसके व्यय और संरक्षण में महान् कष्ट सहना पडता है। एक बार में उसका पाना किस प्रकार संभव हो सकता है ? नहीं होता । श्री पूज्यपाद स्वामी जी ने लिखा है -
दुरज्ये नासुरक्षेण नश्वरेण धनादिना ।
स्वस्थमन्या अपः कोऽपि ज्वरवाननिय सर्पिषा ।।13॥ पुण्य का फल धन वैभव है किन्तु यह अति कठिनता से अर्जित होता है उससे भी अधिक परिश्रम से सुरक्षित रहता है. यह सब होने पर भी देखते देखते नष्ट हो जाता है । ज्वर पीडित मनुष्य घी पीकर स्वस्थ मानता है तो क्या वह स्वस्थ होगा? नहीं । उसी प्रकार पण्य के अभाव में धनादिक नहीं टिकते । पुण्य जब क्रा इसीलिए उसका फल भी स्थायी नहीं होता । नीतिकार कहते हैं -
सुखस्यानन्तरं दुःखं, दुःखस्यानन्तरं सुखम् ।
न हेलया सुखं नास्ति मर्त्यलोके भवेन्नृणाम् ।। मनुष्यों को मयुलोक में सुख नहीं मिलता । मिलता है तो वह टिकता नहीं । सुख के बाद दुःख और दुः ख के बाद सुख आता जाता रहता है । इससे स्पष्ट होता है क्रीडामात्र में पुण्यार्जित नहीं होता इसीलिए उसका फल सुख भी टिकाऊ नहीं रहता 1
पुण्यर्जित किसी एक साधन से, एक ही समय में, एक ही प्रकार से नहीं होता, अपितु अनेकों-पूजा, पाठ, स्वाध्याय, जप तपादि से, समय-समय पर शुभक्रियाएँ सम्पादन से, अनेकों तीर्थ वन्दनादि द्वारा होता है । अस्तु एक काल में प्रचुरपुण्य संपादन नहीं होता । उसके लिए निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए 1 कहा भी है ।
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घडा ऋतु आये फल होय ।। अतएव सन्तोष पूर्वक सरलभाव से न्यायपूर्वक सदाचार निष्ठ हो कर्तव्यों में सजग रहते हुए सातिशय पुण्यार्जन करते रहना चाहिए । निसन्देह परम्परा से मुक्ति प्राप्त होगी ही । "आलसी के मनोरथ विफल होते हैं।"
अनाचरतो मनोरथाः स्वजराज्यसमाः ।।34॥
अन्वयार्थ :- (अनाचरतः) उद्योग विहीन मनुष्य के (मनोरथाः) चित्त में चिन्तित कार्य (स्वप्न-राज्यसमा) स्वप्न में प्राप्त राज्यविभूति के समान निष्फल होते हैं । स्वप्न में किसी ने अपने को महान् राज्य का स्वामी बना देखा, वह बहुत ही खुश हुआ परन्तु निद्राभंग होने पर क्या रहा? कुछ भी नहीं रहा । इसी प्रकार - कर्त्तव्यशून्य-प्रमादी के मनोरथ विफल ही होते जाते हैं।
विशेषार्थ :- जो व्यक्ति जी तोड़ परिश्रम करता है, वही मधुर फल पाता है । नीतिकार वल्लभदेव ने लिखा
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सिंहस्य सुप्तस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।