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-नीति वाक्यामृतम् । आप्तोयज्ञमनुल्लय-मदृष्टे ष्ट विरोधकम्
तत्त्वोपदेशकृतसार्व, शास्त्रं कापथपट्टनम् ॥ अर्थात् जो वीतराग का कहा हुआ, इन्द्रादिक से भी खण्डित न हो सके, प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाणों से भी जिसमें बाधा न आवे, तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप करने वाला, सबका हितकारक और मिथ्यात्वादि कुमार्ग का नाशक होता है उसे सच्चाशास्त्र व आगम कहा जाता है । चञ्चल चित्तवालों का विवरण
हस्तिस्नानमिव सर्वमनुष्ठानमनियमितेन्द्रियमनोवृत्तीनाम् ।।26 ।।
अन्वयार्थ :- (अनियमित) अनियन्त्रित-अनर्गल (इन्द्रिय, मनोवृत्तिनाम्) इन्द्रिय और मन वालों के (सर्वमनुष्ठानम्) समस्त जप, तप, सत्कर्म, दान पूजादि (हस्तिनानं) गजनान के (इव) समान निष्फल (सन्ति) होते हैं । जिनके मन और इन्द्रियाँ निरंकुश-मन-मानी प्रवृत्ति करते हैं उनके समस्त सत्कर्म व्यर्थ हो जाते हैं । विशेषार्थ :- गज का स्वभाव विचित्र होता है । वह स्वच्छ-निर्मल जल प्रपूरित सरोवर में प्रविष्ट होकर आनन्द से स्नान करता है । बाहर आते ही किनारे से पङ्क (कीचड) व धूलि लेकर सूंढ से अपने ऊपर डाल लेता है । बस यही हाल उन गृहस्थों व साधुओं का है जिनकी इन्द्रियों व मन वश में नहीं है । हाथी का स्नान जिस प्रकार व्यर्थ हो जाता है उसी प्रकार विषय-भोगों में इन्द्रिय मन को स्वच्छन्द विहार कराने वालों के दान, पूजा, विधान, जप, तप, शीलादि अनुष्ठान निष्फल हो जाते हैं । अतएव आत्मार्थियों को जितेन्द्रिय होना चाहिए । चञ्चल चित्त परीषहादि दुःख सहकर भी पुनः विषयों में फंस जाते हैं । कुकर्मों के गर्त में पड़ दु:खानुभव करते हैं । संसार भ्रमण चलता ही रहता है । नीतिकार कहते हैं -
अशुद्धेन्द्रियचित्तोयः कुरुते कांचित सत्क्रियाम् ।
हस्तिस्त्रानमिव व्यर्थं तस्य सा परिकीर्तिता ।। अर्थात् जो व्यक्ति इन्द्रियों को वश में किये बिना ही शुभ ध्यान (धर्मध्यान) करने की लालसा रखता है, वह मुर्ख अग्नि के बिना रसोई बनाने की इच्छा करता है । जहाज के बिना भुजाओं से रत्नाकार (सागर) को पार करना चाहता है, बीजाभाव में क्षेत्र में धान्य उत्पन्न करना चाहता है, अथवा बिना पंख आकाश में उड़ने का प्रयत्न करता है। जिस प्रकार अग्नि आदि के बिना भोजन नहीं तैयार हो सकता उसी प्रकार इन्द्रिय और मन का दमन किये बिना धर्मध्यानादि नहीं हो सकते ।
इसी प्रकार कोई भी मनुष्य मानसिक शुद्धि के बिना समस्त धार्मिक क्रियाएँ करता हुए भी मुक्तिलक्ष्मी प्राप्त नहीं कर सकता । कहावत है नेत्र विहीन अपने हाथ में दर्पण लेकर भी क्या अपना मुख देख सकता है ? कदाऽपि नहीं । उसी प्रकार अशुद्ध इन्द्रियों एवं मन की दुष्टता वाले पुरुष कुछ भी सत्कार्य करें सार्थक नहीं होते । कामनाओं का त्याग करना आत्मा की शुद्धि का उपाय है । कुरल में कहा है
हातव्या कामना दूरात् स्वकल्याणं यदीच्छसि । तृष्णाजाल स्वरूपेयमन्ते नैराश्यकारिणी ॥6॥
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