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________________ - -- नीति वाक्यामृतम् N हवन करने के समान व्यर्थ है-निष्फल है । जो मनुष्य पूर्व में किसी वस्तु के सेवन का त्याग कर देता है और पुनः उसे सेवन करने लगता है वह महापापी है । जैनाचार्य कहते हैं "एक बार यथार्थ देव, शास्त्र, गुरु की साक्षी में धारण किया व्रत, जो त्याग देता है वह एक हजार शिखरबद्ध जिनालयों के भङ्ग (फोडने) के पाप का भागी होता है । अर्थात् 1000 जिनालयों को ढाहने का जो पाप होता है उतना ही पाप एक बार व्यक्त कर उसी वस्तु को पुनः सेवन करने में लगता है । नवकोटि से त्याग की वस्तु को पुनः मन से भी उसके सेवन का भाव नहीं करना चाहिए । सत्यार्थ आगम-शास्त्र का निर्णय तत्खलुसद्भिः श्रद्धेयमैतिचं यत्र न प्रमाणबाधा पूर्वापरविरोधो वा ॥25॥ अन्वयार्थ :- (य) जिसको (हि) निश्चय से (सद्भिः सज्जनों द्वारा (श्रद्धेयं) श्रद्धान योग्य (ऐति) स्वीकार किया जाता है (यत्र) जहाँ-उस स्वीकत विषय में (प्रमाणबाधा) प्रमाण के द्वारा बाधा (वा) अथवा (पूर्वापरविरोध) आगे-पीछे विरोधी कथन (न) नहीं होता (स:) वही (खलु) निश्चय से आगम-शास्त्र (अस्ति) है - समझना चाहिए। जिसमें किसी भी प्रमाण से बाधा और पूर्वापरविरोध नहीं पाया जाता हो शिष्ट पुरुषों द्वारा उसे ही श्रद्धा करने योग्य प्रमाणीक आगम कहा जाता है। विशेषार्थ :- जो शास्त्र पूर्वापर विरोधों से भरा है वह मत्त और उन्मत्त के वचनों के समान हैं । अर्थात् जिस ग्रन्थ में एक स्थल पर हिंसा का निषेध है और अन्य स्थल पर धर्मादि के नाम पर विधान है, इसी प्रकार मद्यपान का निषेध लिखकर सोमपान करना स्वीकृत किया हो वह शास्त्र आगम नहीं बन सकता । आचार्य श्री उमास्वामी जी ने कहा है - सदस तोर विशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ।।32 ।।त.सू.अ.1 जो सत् और असत् में भेद नहीं समझता हुआ जैसा चाहे वैसा कथन करे उसका वचन उन्मत्त के वचन समान समझना चाहिए । ऐसा वचन भला आगम किस प्रकार कहला सकता है ? नहीं कहा जा सकता । नीतिकार नारद ने भी कहा है कि स्वदर्शनस्य माहात्म्यं यो न हन्यात् स आगमः । पूर्वापरविरोधश्च शस्यते स च साधुभिः ।।1।। अर्थ :- जो अपने सिद्धान्त के माहात्म्य को नष्ट न करता हो, उनकी निष्ठा करता हो, पूर्वापर के विरोध से रहित हो ऐसे आगम को सन्त पुरुष आगम कहते हैं - प्रशंसनीय बताते हैं । सारांश यह है कि वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी तीर्थङ्करों द्वारा भाषित द्वादशाङ्ग आगम अहिंसा धर्म का समर्थक होने से पूर्वापर विरोध रहित होने के कारण अपने सिद्धान्त की प्रतिष्ठा करता है । वक्ता की प्रमाणता से वचन में प्रमाणता आती है । अत: सर्वज्ञ की प्रमाणता होने से उनके ही उपदेश प्रमाणित होते हैं । यशस्तिलक में भी लिखा है - जो शास्त्र पूर्वापर विरोध के कारण युक्ति से बाधित है वह मदोन्मत्त के वचनों के तुल्य है । अत: वह प्रमाण भूत नहीं हो सकता । सच्चे आत का कथित ही आगम है । स्वामी समन्तभद्र जी ने कहा है
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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