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________________ नीतिवाक्यामृतम् का अर्थ है प्रतिज्ञा अर्थात् काल की मर्यादा से पापों का त्याग करना नियम है । परन्तु आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने नियम का अर्थ रत्नत्रय किया है आत्मा कहा है- देखिये णियमेण य जं कज्जं तं नियमं णाणदंसण चरितं । विवरीय परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥ ३ ॥ अर्थ :- नियम से जो करने योग्य है वह नियम है। ऐसा नियम दर्शन, ज्ञान और चारित्र है । इनमें विपरीत अर्थात् मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र का परिहार करने के लिए "सार" वचन निश्चय से कहा गया है। सम्यक् रत्नत्रय रूप परिणति करना नियम है। यह आत्मा का स्वरूप है । निज स्वभाव रूप प्रवृत्ति सदाचार, शिष्टाचार, सम्यक्त्वाचार है । रत्नत्रय मोक्ष का उपाय है और उसका फल निर्वाण है । 'नियम' का अर्थ सीमा भी होता है । जो सीमा या मर्यादा में चलता है, उसका ही विकास होता है । जो बढ़ता है वही मञ्जिल पर पहुँचता है । दायरे में रहने से मान-मर्यादा सुरक्षित रहती है और उत्तरोत्तर अग्रसर होता जीवन पूर्ण विकास कर लेता है । अतः नियमबद्ध होना ही चाहिए । शास्त्र का माहात्म्य विधि निषेधावैतिह्यायत्तौ ॥24॥ अन्वयार्थ :- (विधि) करने योग्य में प्रवृत्ति (निषेध) नहीं करने योग्य से निर्वृत्ति (हि) निश्चय से (आयतौ ) जिससे प्राप्त है, ज्ञात होती है ( ऐति) वही आगम है । लौकिक और परलौकिक विषयों का ज्ञान कराने वाला आगम होता है । विशेषार्थ :- कर्त्तव्य में प्रवृत्ति विधि है । अकर्त्तव्य से निवृत्ति निषेध कही जाती है। ये दोनों समीचीन - सत्यार्थ आगम के आधीन हैं। आगम का आधार आप्त है । सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी ही यथार्थ वक्ता हो सकता है । अतः उसके द्वारा उपदिष्ट जो करणीय व अकरणीय विधान हैं उनमें वैसा ही प्रवृत्त और निवृत्त होना चाहिए। श्रेयस्कर कर्त्तव्यों का पालन करना एवं ऐहिक और पारलौकिक दुःखोत्पादक सर्वक्रियाओं का त्याग करना आर्षपरम्परा है। इसके अनुसार प्रत्येक मानव को अपना आचरण करना चाहिए । श्रेयस्कर कर्त्तव्यों का और उभयलोक में अकल्याणकारी अकर्तव्यों का निर्णय आगम ही कर सकता है जन साधारण नहीं ||24 ॥ भागुरि विद्वान ने भी कहा है - - I विधिना विहितं कृत्यं परं श्रेयः प्रयच्छति विधिना रहितं यच्च यथा भस्महुतं तथा 17 निषेधं यः पुरा कृत्त्वा कस्यचिद्वस्तुनः पुमान् । तदेव सेव ते पश्चात् सत्यहीनः स पापकृत् ॥2॥ अर्थात् शास्त्र विहित कार्य करने से प्राणी का अत्यन्त कल्याण होता है और आगम निषिद्ध कार्य भस्म में 27
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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