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________________ नीति वाक्यामृतम् । प या अर्थात् यदि तुम भद्रता चाहते हो तो कामना से दूर रहो, क्योंकि कामना एक जाल है और निराशामात्र है । यदि कामना करना ही चाहते हो तो पुति की 11-14 . . कामना कर्तुमिच्छा चेत् तर्हि मुक्ती विधियताम् । सोऽधिकारी परं तत्र येनेयं कामना जिता ।।2।। यदि किसी बात की इच्छा करना है तो पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा पाने की कामना करो । इन्द्रिय व मन के अनुसार न चलकर इन्हें अपने अनुकूल चलाओ । सबका यही सार है । 'ज्ञानवान होकर भी शुभकार्य न करे उसका वर्णन' दुर्भगाभरणमिव देहखेदावहमेव ज्ञानं स्वयमनाचरतः ।।27। अन्वयार्थ :- (ज्ञानं) ज्ञान प्राप्तकर भी यदि (स्वयम) ज्ञानी (अनाचरतः) दुराचरण में प्रवृत्ति करता है तो (दुर्भगास्याः) दुर्भागी-दरिद्री विधवा स्त्री के (आभरणम्) आभरणों की (इव) भांति (देहखेदावहम्) शरीर को कष्टदायक (एव) ही (अस्ति) है । विशेषार्थ :- अनेकों शास्त्रों का ज्ञाता होकर भी यदि तदनुसार प्रवृत्ति नहीं करता है । कुमार्ग गामी है तो उस ज्ञान का क्या प्रयोजन ? वह प्रचुर ज्ञान मात्र विधवा स्त्री के आभरणों के समान भार भूत हैं । नारी का श्रृंगार सौभाग्य से शोभा पाता है । वैधव्य के प्राप्त होने पर अर्थात् पतिविहीन महिला सन्यास से शोभित होती है । सौभाग्य के चिन्ह स्वरूप आभरणों को यदि वह धारण करती है तो वे उसे लाञ्छित करने वाले ही होते हैं । लोक उसे सन्देह की दृष्टि से देखते हैं । इसी प्रकार ज्ञानी के ज्ञान की शोभा सदाचार, शिष्टाचार, नैतिकाचार और धर्माचरण से होती है न कि आगम विरुद्ध हिंसादि पाप क्रियाओं से कहा भी - विद्या विवादाय धनं मदाय शक्ति परेषां परिपीडनाय खलस्य साधो विपरीतमेतद ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥ अर्थ :- दुर्जन की विद्या विवाद (झगडो) के लिए, धन अहंकार उत्पन्न करने वाला और शक्ति निर्बलों को सताने वाली होती हैं । परन्तु सच्चे सज्जन की विद्या ज्ञानवृद्धि को धन-वैभव दान के लिए और शक्ति, धर्म, शील, असहायादि के रक्षण के लिए होती है । यस्त नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं किं करिष्यति । लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति ।। अर्थात् शास्त्र ज्ञान तभी कार्यकारी है जब हम बुद्धि का प्रयोग आचरण में लायें । नीतिकार राजपुत्र ने भी कहा है - यः शास्त्रं जानमानोऽपि तदर्थं न करोति च । तद् व्यर्थ तस्य विज्ञेयं दुर्भगाभरणं यथा ।। 30
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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