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________________ -नीति वाक्यामृतम् सम्पत्ति के दो ही फल हैं ? सत्पात्रों को दान देना और 2. स्वयं नीति व आवश्यकतानुसार उपभोग करना । निरन्तर लोभ परिणति बनाये रखना नीति विरुद्ध है । विशेषार्थ :- कृपण और कृपाण (तलवार) में मात्र अकार और आकार में अन्तर है शेष बातें समान हैं । सुभाषित रत्न भाण्डागार में कहा है - दृढतर निबद्धमुष्टे: कोष णिसण्णस्य सहजमलिनस्य । कृपणस्य कृपाणस्य च के वलमाकारतो भेदः ।। अर्थ :- कृपण (लोभी) और कृपाण (तलवार) इसमें केवल "आ" की मात्रा का ही भेद है । अर्थात् कृपण शब्द में हस्व प में अ है और कृपाण के 'प' में दीर्घ "आ" होता है । शेष सभी धर्म समान हैं । क्योंकि कृपण अपने धन को मुट्ठी में रखता है और भट तलवार को म्यान में रखकर मुट्ठी में ही रखता है । कुपण का माहादैन शिम रहता है, कृपाल-तलवार भी काली होती है-म्यान में रहती है और कृपण खजाने में रहता है । अत: दोनों ही समान हैं- अ और आ भेद छोड़कर । जिस प्रकार तलवार घातक है, उसी प्रकार लुब्धक का धन भी धर्मकार्य में न लगने से घातक है-दुर्गति का कारण--दुःखरूप ही है । लोभी पुरुष को दान-त्याग की बात सुहाती नहीं है । इसके विपरीत कुपित होता है । कहा भी है - उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये। पयः पानं भुजङ्गाना, के वलं विष वर्द्धनम् ।। __ भव्यों को लोभ का परित्याग कर दान पूजादि धर्म कार्यों में लगा कर अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करना चाहिए । पुनः नौतिकाचारी के सत्कर्तव्य निरूपण दानप्रियवचनाभ्यामन्यस्य हि सन्तोषोत्पादनमौचित्यम् ॥17॥ उद्धत है यह अन्वयार्थ :- (अन्यस्य) दूसरे के लिए (दानप्रियवचनाभ्याम्) दान और मधुरवाणी से (सन्तोष) सन्तुष्टि (उत्पादनम्) उत्पन्न करना (हि) निश्चय से (औचित्यम्) उचित कर्त्तव्य है ।। विशेषार्थ :- परोपकार उत्तम कर्तव्य है । उचित धन देकर अन्यों को सन्तोष प्रदान करना नैतिकाचार है । लेकिन साथ ही विवेक रखना भी आवश्यक है। "सच्चे लोभी की प्रशंसा" "स खलु लुब्धो यः सत्सु विनियोगादात्मना सह जन्मान्तरेषु नयत्यर्थम् ॥18॥" अन्वयार्थ :- (खलु) निश्चय से (यः) जो (सत्सु) सज्जनों में (अर्थम्) धन को (विनियोगात्) वितरण कर (आत्मना) स्वयं के (सह) साथ (जन्मान्तरेषु) अन्य भवों में (नयति) ले जाता है (सः) वह (लुब्धः) यथार्थ लोभी जो मनुष्य सत्पुरुषों-धर्मात्माओं को दान-सम्मान देकर (पुण्यरूप गठरी ले) परलोक में अपने धन को ले जाता है, वही निश्चय से सच्चा लोभी है ।
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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