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नीति वाक्यामृतम् ।
विशेषार्थ :- जोड़-जोड़ कर धन को छाती से लगाकर रखने वाला यथार्थ लोभी नहीं है क्योंकि वह तो मृत्यु होने पर उसे यहीं छोड़ जाता है । न यहाँ भोगता है न परलोक में । उदार-दानी यथार्थ लोभी है क्योंकि पात्र-सत्पात्र दान देकर उसे वृद्धिंगत करता हुआ अक्षय बना लेता है और जन्मान्तर में प्रयाण करते समय पुण्य रूप से वहाँ भी ले जाता है और स्वर्गादि के अनुपम भोगों के रूप में वहाँ प्राप्त हो जाती है । वर्ग नामक विद्वान ने कहा है
दत्तं पात्रेऽत्र यद्दानं जायते चाक्षयं हि तत् ।
जन्मान्तरेषु सर्वेषु दातुश्चैवोपतिष्ठते ।। अर्थात् इस लोक में सुपात्रों को दिया गया दान अक्षय हो जाता है । जिससे उसके भवान्तरों में उसे मिलता रहता है।
वस्तुतः दान की महिमा अपार है । दानी स्वयं ज्ञानी बन जाता है । ज्ञानी से ध्यानी और ध्यान से सिद्ध हो जाता है। निरभिमानी का धन उसे उत्तरोत्तर विकासोन्मुख करता जाता है । अन्ततः अक्षय, अपार, अमूल्य आत्मानन्द स्वरूप मोक्ष लक्ष्मी में परीणत हो जाता है । भिक्षुक को भिक्षा में विज क्यों ?
अदातुः प्रियालापोऽन्यस्य लाभस्यान्तरायः ॥9॥
अन्वयार्थ :- (अदातुः) भिक्षा नहीं देने वाले के (प्रिय आलाप:) मधुर वचनों का वार्तालाप (अन्यस्य) दूसरे के (लाभस्य) लाभ-प्राप्ति का (अन्तरायः) अन्तराय सिद्ध होता है ।
विशेषार्थ :- जो वाचाल मनुष्य बेचारे भिक्षुक को भिक्षा न देकर मधुर मधुर बातों (लिप्स सिम्पैथी) में फंसा लेता है वह उसके भिक्षालाभ में अन्तराय डालता है । कारण यदि तत्क्षण उसे नकारात्मक उत्तर दे दे तो वह दूसरे घर या व्यक्ति के पास जाकर याचना कर सकता है । उसके आश्वासन में उलझ कर अन्यत्र भी नहीं जा सका और यहाँ तो कोरे वचन ही रहे । कहा भी है -
"दाता से तो सूम भला जो झटके देय जवाब ।।" कोरी बातें बनाने वाले प्रियवादी दाता से कृपण ही अच्छा है जो भिक्षुक के आते ही उसे फटकार लगा देता है । वह तुरन्त अन्यत्र जाकर अपनी क्षतिपूर्ति कर लेता है । वर्ग विद्वान ने भी कहा है - . .प्रत्याख्यानमदाता ना याचकाय करोति यः ।
तत्क्षणाची व तस्याशा वृथा स्यान्नैव दुःखदा ।। जो मनुष्य याचक को कुछ नहीं देता और स्पष्ट नकारात्मक उत्तर देकर छोड़ देता है । यद्यपि इससे उस समय पीड़ानुभव होती है परन्तु भविष्य में वह सावधान हो जाता है । अभिप्राय इतना ही है कि जिस कार्य को करना है उसे शीघ्रातिशीघ्र कर लेना बुद्धिमानी है । दरिद्र की स्थिति
सदैव दुःस्थितानां को नाम बन्धुः ॥20॥
अन्वयार्थ :- (सदैव) हमेशा (दुःस्थितानाम्) दारिद्र पीड़ितों का (बन्धुः) मित्र (को नाम) कौन रहता है? अर्थात् कोई नहीं ।
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