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नीति वाक्यामृतम्।
ग्रन्थकार की प्रशस्ति
इति सकलतार्किक चक्रचूड़ामणि चुम्बित चरणस्य पञ्च, पञ्चाशन्महावादि विजयोपार्जित कीर्ति मन्दाकिनी पवित्रित त्रिभुवनस्य, परम तपश्चरण रत्नोदन्वत : श्री मन्नेमिदेवभगवतः प्रियशिष्येण वादीन्द्रकालानल श्री मन्महेन्द्र देव भट्टारकानुजेन, स्याद्वादाचलसिंह-तार्किक चक्रवर्ती वादीम पञ्चानन-वाक्कल्लोलपयोनिधि कविकुल राजप्रभृति प्रशस्ति प्रशस्तालकारेण, षण्णवति प्रकरण युक्ति चिन्तामणि सूत्र महेन्द्रमाल संजल्प यशोधर महाराज चरितमहाशास्त्र वेधसा श्री सोमदेवसूरिणा विरचितं (नीतिवाक्यामृत) समाप्तमिति ।।
अर्थ :- सम्पूर्ण तार्किक-समूह में चूडामणि-शिरोरत्न-- श्रेष्ठतम आभूषण, विद्वानों द्वारा पूजित हैं चरण सरोज जिनके, पचपन महान वादियों पर विजयलक्ष्मी से उपार्जित धवलकीर्ति रुपी जावी से पावन किये हैं तीनों भुवनों को जिन्होंने एवं परमतपश्चरण रूप रत्नों के रत्नाकर (सागर) ऐसे श्री मत्पूज्य नेमिदेव भगवान के प्रिय शिष्य "वादीन्द्रकालानल" (बड़े-बड़े वादियों के लिए जो प्रलयकालीन अग्नि सदृश हैं) उपाधि विभूषित श्रीमान् महेन्द्रदेव भट्टारक के अनुज-लघुभ्राता, "स्याद्वादाचलसिंह" (स्याद्वादरूप विशाल पर्वत के सिंह), तार्किक चक्रवर्ती, "वादीभपंचानन" (वादीरूप गजों के गर्वोन्मूलन करने के लिए शेर समान), "वाक्कल्लोपयोनिधि" (सुक्ति-तरगों के सागर) "कविकुलराज" इत्यादि प्रशस्तियाँ (उपाधियाँ) हो हैं प्रशस्त आभूषण जिनके तथा षष्णवतिप्रकरण (96 अध्याय वाला शास्त्र), युक्ति चिन्ता मणि (दार्शनिक ग्रन्थ) त्रिवर्गपहेन्द्रमातलिसंजल्प (धर्मादि पुरुषार्थ तीनों के निरुपक नीतिशास्त्र) और यशोधर महाराज चरित्र (यशस्तिलक चम्मू) इन महाशास्त्रों के वृहस्पति समान रचयिता श्रीमत्सोमदेवसूरि द्वारा रचा गया यह "नीति वाक्यामृत" समाप्त हुआ ।
अल्पेऽनुग्रहधी: समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्रचरिते श्री सोमदेवे मयि । य: स्पर्धेत तथाऽपि दर्पदृढता प्रौढ़िप्रगाढ़ाग्रहस्तस्यारवर्वितगर्व पर्वत पविर्भद्राक् कृतान्तायते 17 ||
सकल समय तर्के नाकलड्कोसि वादो, न भवसि समयीक्तौ हंस सिद्धान्त देवः । न च वचन विलासे पूज्यपादोऽसि तत्वं, वदसि कथमिदानी सोमदेवेन सार्धम् 112 ॥ दुर्जनांघ्रिप कठोरकुठारस्तर्क कर्कश विचारणसार: सोमदेव इव राजनि सूरिर्वादिमनोरथ भूरिः ।।।
संशोधित व परिवर्तित दन्धि बोधबुध सिन्धुर सिंहना दे, वादिद्विपोद्दलनदुर्धर वाग्विवादे । श्री सोमदेवमुनिपे वचना रसाले, -वागीश्वरोऽपि पुरतोऽस्ति न वादकाले 14 ॥
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