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नीति वाक्यामृतम्
निः सारितस्य भृतस्य स्वामिनिर्वृतिकारणम् । यथा कुपितया मात्रा बालस्यापि च सागतिः ॥ 11 ॥
जिस प्रकार अपराधी बालक माता द्वारा तिरस्कृत किये जाने पर भी वह माता ही उसके जीवन की रक्षक होती है । उसी प्रकार सेवक के अपराध किये जाने पर सेवक की जीवन रक्षा उसके द्वारा की जाने वाली स्वामी की सेवा सुश्रुषा द्वारा ही होती है 173 || शुक्र ने भी यही किया है :
निः सारितस्य भृतस्य स्वमिनिर्वृतिकारणम् । यथा कुपितया मात्रा बालस्यापि च सा गतिः ॥1॥
माँ की ममता संसार प्रसिद्ध है । अपने बच्चे के प्रति उसका असीम प्यार होता है । इसी प्रकार अपनी सन्तान का सर्वाङ्गीन विकास करने में भी अथक परिश्रम करती है । यही भावना उपर्युक्त वार्तिक स्पष्ट की है । बालक के अपराध करने पर माता उसे जो कुछ डाट-फटकार करती है उसका उद्देश्य उसे निर्दोष बनाकर उच्च, महान, आदर्श महापुरुष बनाना है ।।
इति श्री प्रकीर्णक समुद्देश
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इति श्री प्रातः स्मरणीय परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती मुनिकुज्जर सम्राट् विश्ववंद्य, दिगम्बर जैनाचार्य श्री 108 आचार्य परमेष्ठी आदिसागर जी अंकलीकर के पट्टशिष्य परम पूज्य तीर्थभक्त शिरोमणि, 18 भाषा-भाषी, तार्किक चूडामणि, उद्भटविद्वान, घोरोपसर्ग विजेता, परम तपस्वी श्री 108 आचार्य महावीर कीर्ति जी महाराज की संघस्था, परम पूज्य वात्सल्य रत्नाकर, सन्मार्ग दिवाकर, कलिकाल सर्वज्ञ श्री 108 आचार्य विमलसागर जी की शिष्या वर्तमानसदी की प्रथमगणिनी, ज्ञान चिन्तामणि 105 आर्यिका विजयामती जी द्वारा नीतिवाक्यामृत की हिन्दी विजयोदय टीका का 32वाँ प्रकीर्णक समुद्देश, परम पूज्य भारतगौरव, वात्सल्य रत्नाकर घोर तपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती, महोपवासी कठोर परीषह - उपसर्ग विजेता श्री 108 आचार्य अंकलीकर के तृतीय पट्टाधीश श्री सन्मति सागर जी महाराज के परम् पावन चरण सानिध्य में समाप्त किया ।
।। समाप्तोऽयं ग्रन्थः ||
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'यह ग्रन्थ समाप्त हुआ"
।। ॐ नमः शान्ति ॐ नमः शान्ति ॐ नमः शान्ति ।।
मिती पौष वदी एकम चन्द्रवार (सोमवार) प्रातः काल श्री 1008 आदिनाथ जिनेश्वर चरणारविन्द सान्निध्य में ता. 19-12-94 वीर सं. 2521 शुभ बेला में समाप्त किया ।। जयपुर (राजस्थान ) चातुर्मास काल में ।। छोटे दीवानजी का श्री आदिनाथ जिनालय ||
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