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नीति वाक्यामृतम्
शत्रु और ऋण को जड़ मूल के समाप्त करना सुख शान्ति का हेतू है । जो पुरुष शत्रु को जीवित रखने के समान ऋण (कर्ज) को भी बाकी रखता है, उसे भविष्य में भय का शिकार होना पडता है अतः सुखेच्छु को अग्नि, रोग, शत्रु और ऋण इन चारों वस्तुओं को कष्टदायक मशगूल से उट करना चाहिए ।। क्योंकि तनिक भी बाकी रहने पर ये महान कष्ट देने वाली होती हैं 168 ॥ नारद ने भी यही कहा है :
अनारम्भेण कृत्यानामालोचः क्रियते पुरा । आरम्भे तु कृते पश्चात् पर्यालोचो वृथाहि सः 111 ॥
ऐसा कौन सेवक होगा जो प्रारम्भ में नम्रता का प्रदर्शन नहीं करता ? प्रायः सभी करते हैं । अभिप्राय यह है कि प्रारम्भ में सेवक अपने स्वामी को प्रसन्न रखने के लिए नाना प्रकार के प्रलोभनों, चापलूसी आदि करके विनम्र व्यवहार करता है । स्वामी को विश्वस्त रखने या करने का वह सतत प्रयत्नशील रहता है । पश्चात् नाना प्रकार के विकृत कार्यों में संलग्न हो प्रमादी आलसी हो जाता है। अतः नवीन सेवक पर विश्वास नहीं करना चाहिए 1169 ॥ वल्लभदेव ने भी कहा है.
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अभिनव सेवक विनयैः प्राघूर्णिकोक्त विलासिनीरुदितैः । धूर्तजन वचन निकरैरिह कश्चिद्वञ्चितो नास्ति ।।1 ॥
इस दुष्कर कालिकाल में कौन पुरुष अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करता है ? कोई नहीं करता । अतः सम्यक् प्रकार पूवापर विचार कर प्रतिज्ञा करनी चाहिए और पूर्ण दृढता से उसका निर्वाह करना चाहिए । अन्यथा प्रतज्ञा भग होने से पुण्यक्षीण हो जाता है ||70| वैभव का भूत जब तक सवार नहीं होता, दरिद्र दशा के विशेष मनोरथों का प्रदर्शन करते हैं कि मैं भी धनाढ्य होता तो अवश्य ही पूजा, दान, जिनप्रतिमा जिनालय निर्माण कराता प्रचुर दान प्रभावना करता आदि 171 ॥ नारद ने भी कहा है :
प्रतिज्ञां यः पुरा कृत्वा पश्वाद् भंगं करोति च ततः स्याद् गमनिश्च हसत्येव जानन्ति के ? ।। 1 ।। रैम्य ने भी कहा है
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दरिद्रः कुरुते वाञ्छां सर्वदान समुद्भवाम् । यावन्नाप्नोति वित्तं स वित्ताप्त्या निपुणो भवेत् ॥1 ॥
स्वार्थी मनुष्य विषयान्ध के समान अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए नीच आचरण से भयभीत नहीं होते । क्या जलाभिलाषी मनुष्य कूप खनन के प्रयास में निम्न तल में नहीं जाता ? जाता ही है । अभिप्राय यह है कि स्वार्थी इष्ट प्रयोजन सिद्धि के लिए उत्तम आचरण ही श्रेयस्कर है 1172 ॥ शुक्र ने भी कहा है :
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