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________________ नीति वाक्यामृतम् । याचक का कर्तव्य "स खल्वर्थी परिपन्थी यः परस्य दौः स्थित्यं जाननप्यभिलपत्यर्थम् ॥ ४॥" अन्वयार्थ :- (य:) जो (अर्थी) भिक्षुक (परस्य) दूसरे के (दौः स्थित्यं) दरिद्रता को (जानन्) ज्ञातकर (अपि) भी (अर्थम्) धन (अभिलषति) चाहता है (स:) वह (खलु) निश्चय से (परिपन्थी) उसका शत्रु है । यदि याचक किसी दरिद्री से याचना करता है तो वह उसके लिए कष्टदायी होता है क्योंकि वह कुछ देने में असमर्थ रहता है जिससे उसे मानसिक कष्टानुभव होता है । विगंवाद :- सपथ के पास याचना करने पर दाता और याचक दोनों को तृप्ति होती है । इसके विपरीत दोनों ही पीड़ित होते हैं । कहा भी है "असन्तमपि यो लौल्याज्जानन्नपि च याचते ।" "शक्तचनुसार व्रत नियम करने का उपदेश" तव्रतमाचरितव्यं यत्र न संशयतुलामारोहतः शरीरमनसी ।। १॥ अन्वयार्थ :- (तद्) वह (व्रतम्) व्रत (आचरितव्यं) आचरण करना चाहिए (यत्र) जिससे (जहाँ) (शरीरमनसी) शरीर और मन (संशयतुलाम्) सन्देह की तराजु पर (न) नहीं (आरोहतः) चढने पायें ॥ नैतिक मनुष्य को ऐसे व्रतों का आचरण करना चाहिए जिनसे उसके मन और शरीर क्लेशित न हों । विशेषार्थ :- चारायण मुनि ने कहा है "जो मनुष्य शरीर की सामर्थ्य का विचार न कर व्रत का नियम करता है उसका मन संक्लेशित होता है" । पुनः वह पश्चात्ताप करने लगता है तथा इससे व्रत का शुभ फ. नहीं मिलता। यथा - अशक्त या यः शरीरस्य वतं नियम मेव वा । संक्लेशं भवेत् पश्चात् पश्चात्तापात् फलच्युतिः । यश. आ. 7 सारांश यह है कि न्यायोपात्त धन को भी श्रावकों को यथायोग्य रीति से योग्य पात्रों में वितरण कर पुण्योपार्जन करना चाहिए। त्याग-दान का माहात्म्य ऐहिकामुत्रिक फलार्थमर्थव्ययस्त्यागः ॥10॥ अन्वयार्थ :- (ऐहिक) इस लोक सम्बन्धी (आमुत्रिक) परलोक सम्बन्धी (फलार्थम्) फल की प्राप्ति के लिए (अर्थव्ययः) धन खर्च करना (त्यागः) त्याग धर्म (अस्ति) है । विशेषार्थ :- आगम में कहा है "अनुग्रहार्थ स्वस्याति सर्गो दानम् ।" उभयलोक में अनुग्रह -उपकार करने के लिए स्व वित्त का त्याग करना दान कहा जाता है । तीर्थंकर भगवान के पञ्चकल्याणक होते हैं, परन्तु पञ्चाश्चर्य किसी भी कल्याण में नहीं हुए । किन्तु जिस दाता के घर में आहार होता है नियम से पञ्चाश्चर्य (रत्नवृष्टि, गंधोदक 17
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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