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नीति
वृष्टि, पुष्पवृष्टि, मन्दसुगन्ध पवन का चलना और जय जय ध्वनि-दुंदुभिवाजे) होते हैं। साथ ही तीर्थङ्कर प्रभु का प्रथम पारणा कराने वाले उसी भव अथवा तीसरे भव में नियम से मुक्ति प्राप्त करता है । इसी प्रकार अन्य पात्रों को दान देने वाला दाता भी यथायोग्य फल को पाता है। " आदिपुराणपर्व "
वाक्यामृतम्
प्राणियों का मन उत्तम होने पर भी यदि दान, पूजा, तप और जिनभक्ति से शून्य है तो वह कोठी में भरे धान आदि बीजों के समान है । स्वर्गादि फलों की उत्पत्ति नहीं कर सकते । इन्हीं बीजों को धर्म रूपी भूमि में वपित कर दिया जाय तो सुख शान्ति रूपी फल उत्पन्न कर सकते हैं।
आहार, अभय, औषधि और ज्ञानदान के भेद से दान चार प्रकार का । दा देने वाले की विधि का निरूपण करते हुए उमास्वामी जी ने लिखा है "विधिद्रव्य दातृ पात्रविशेषात्तद्विशेषः ॥ 139 || विधि विशेष - नवधाभक्ति से, सप्तगुण युक्त होकर न्यायोपार्जित धन से उत्पन्न आहारादि प्रदान करना । द्रव्य-शुद्ध, मर्यादित, भक्ष्य, तपध्यान स्वाध्याय वर्द्धक, वात-पित्त-कफादि रोग अवरोधक वस्तु देना । दाता विशेष सप्तगुण युक्त उदार, सन्तोषी होना । पात्रविशेष - उत्तम मध्यम जघन्य पात्र होना । इन चारों की योग्यता पर दान का फल हीनाधिक होना संभव है ।
अपात्र, कुपात्रादि को दिया दान निष्फल होता है । कंकरीली भूमि में बोया बीज अल्प फलता है एवं पाषाण शिला पर वपित व्यर्थ ही चला जाता है । इसी प्रकार अपात्र, कुपात्रों में वितरित दान का फल समझना चाहिए। कहा भी है
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धूर्ते वंदनि मल्ले च कुवैद्ये कैतवे शठे I चाटुचारण चौरेषु दत्तं भवति निष्फलम् ॥ 1॥
नम्रता युक्त धूर्त पुरुष, पहलवान, खोटा वैद्य, जुआरी - द्यूतव्यसनी, शठ (मूर्ख) चापलूस चाटुकारी करने वाले भाट और चोरादि को दिया जाने वाला धन व्यर्थ ही जाता है । दान का फल बताते हुए नीतिकार कहते हैं
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दानेन,
ज्ञानवान ज्ञान निर्भयोऽभयदानतः अन्नदानात्सुखी नित्यं आरोग्यं भैषजाद् भवेत् ।।
सम्यग्ज्ञान के साधन भूत शास्त्रादि दान देने से ज्ञानावरणी कर्म का क्षयोपशम बढ़ता है - ज्ञान की बुद्धि होती है, प्राणियों के जीवन रक्षण का उपाय अभयदान है, तथा साधु-सन्तों को वसतिकादि प्रदान करना अभयदान है, शुद्धपवित्र, आरोग्य-ज्ञान-ध्यानवर्द्धक आहार देना आहारदान है। शुद्ध, योग्य औषधि देना औषध दान है । यशस्तिलक में लिखा है - अभय दान से मनोज्ञ शरीर, आहार दान से सांसारिक भोगोपभोग की सामग्री, औषधदान से आरोग्य शरीर और विद्या- ज्ञान दान से श्रुतकेवली पद प्राप्त होता है ।। 3/4/5/6आ. 8 ।।
समस्त दानों में अभय दानप्रमुख है । जीवन रक्षा के अनन्तर ही अन्य दान दिये जा सकते हैं। अभय दानी समस्त आगम के पठन का लाभ और सर्वोच्च तपश्चर्या का फल प्राप्त कर लिया। एक-एक दान का महत्त्वपूर्ण फल है । सदाचारी भव्य श्रावकों को यथाशक्ति और यथाभक्ति दान अवश्य ही देना चाहिए । इससे उभयलोक के सुख प्राप्त होते हैं । अतः श्रावकों को स्नान- भोजन-पान की भांति औषध स्वरूप दान अवश्य वितरित करना चाहिए । इससे प्रभूत ज्ञान और सुख प्राप्त होता है। दान फलानपेक्षी होना परमावश्यक है ।
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