SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नीति वाक्यामृतम् जीवनदान करे तो उस दान से यह अनन्तगुणा है, अभय दान से उस दान की तुलना नहीं हो सकती । यदि हम किसी को जीवन दान नहीं दे सकते तो हमें उसके प्राण लेने का अधिकार क्या? व्यास ने भी इसका विवरण करते हुए कहा येषां परविनाशाय नात्र चिनं प्रवर्तते । अवता अपि ते मयाः स्वर्गे यान्ति दयान्विताः जो कृपालु अपने चित्त को जीवधात के भाव से अलिप्त रखता है वह असंयमी-आव्रती होने पर स्वर्ग के अद्भुत सुख भोगता है । अर्थात् अहिंसक होने से देवपर्याय प्राप्त करता है । सुखाभिलाषी प्राणियों को शत्रु-मित्र सबके रक्षण का भाव रखना चाहिए कहा है जो तोको कांटा बुबै, ताहि बोय तू फूल । तोय फूल के फूल हैं, वाको हैं त्रिशूल ।। सुखेच्छुओं को सदा दयान्वित रहना चाहिए । शक्ति से अधिक दान देने का फल "स खलु त्यागो देश त्यागाय यस्मिन कृते भवत्यात्मनो दौः स्थित्यम् ।। 7॥" अन्वयार्थ :- (यस्मिन्) जिस (दाने) दान के (कृते) करने पर (आत्मनः) आत्मा के (दौ:स्थितम्) दारिद्र का कष्टानुभव हो (स:) वह ( त्यागो) दान (खलु) निश्चय से (देशत्यागाय) देश त्यागने के लिए होता है । जिस दान के करने से दाता को व उसके परिवार को दारिद्रजन्य कष्ट भोगना पड़े तो निश्चय ही वह अपने स्वाभिमान की रक्षार्थ देश का त्याग कर अन्यत्र चला जायेगा ।। विशेषार्थ:- जो मनुष्य अपनी आय का विचार न कर, आमदनी से अधिक दान देता है वह दान जघन्य कोटि का कहा गया है । कारण ऐसा करने से वह ऋणी होगा और उसका परिवार भी दुःखी होगा । अन्ततः उसे देश त्याग कर भागना ही पड़ेगा। कहा भी है - आगते रधिकं त्यागं यः कुर्यात् तत्सुतादयः । दुःस्थिताः स्युः ऋणग्रस्ताः सोऽपि देशान्तरं व्रजेत् ।। ॥शुक्रः। अर्थात् जो व्यक्ति स्वयं की आय से अधिक व्यय करता है, वह ऋणी होता है, उसके पुत्रादि कष्ट में पड़ते हैं वह भी लोकलाज के भय से भयातुर होकर देशत्याग कर चला जाता है । अमित गति आचार्य ने सुभाषित रत्न सन्दोह में लिखा है "सम्यग्दृष्टि भव्यजीव कर्मों का नाश करने के लिए पात्रदान देता है । उसके प्रभाव से स्वर्गादि में देवाऽगनाओं के साथ रमण करता है, पुनः वहाँ से चयकर उत्तम कुल में मनोज्ञ रूप, जिनधर्म प्राप्त कर मोक्ष लक्ष्मी भी प्राप्त करते हैं । यद्यपि दान का अचिन्त्य, अनुपम माहात्म्य है तो भी विवेकियों को यथाशक्ति ही पात्रदान देकर पुण्यार्जन करना चाहिए । उत्तम, मध्यम जघन्य पात्रों को विधिवत प्रदत्त दान दुष्कर्मों का नाशक व सातिशय पुण्यवर्द्धक होता है । तथा ,परम्परा से मुक्ति प्रदाता भी होता है । - - - 16
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy