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________________ ------------------------------मीति वाक्यामृतम् । -- अर्थात् जो भव्यात्मा जिनेन्द्रवत् समस्त जीवों को मानते हैं और जिन प्रभु को जीव समझते हैं उनमें ही साभ्यभाव होता है । जो इस प्रकार समताभाव में स्थिर होते हैं वे ही शीघ्र निर्वाणपदारोही बनते हैं । अत: सुसिद्ध है प्राणिरक्षा ही धर्म का मूल है । दयाविहीन पुरुषों की क्रियाएँ निष्फल होती हैं "न खलु भूतद्गृहां कापि क्रिया प्रसूते श्रेयांसि ।।5।। अन्धयतार्थ :- (भूतगृहां) प्राणियों के साथ विद्रोह करने वाले की (कापि क्रिया) कोई भी क्रिया-कार्य (खलु) निश्चय से (श्रेयांसि) कल्याण रूप में (न) नहीं (प्रसूते) उत्पन्न होती है । अर्थात् जो मनुष्य अन्य जीवों के प्रति कटु भावना रखते हैं, दूसरों के अहित करने की चेष्टा करते हैं उनका कोई भी प्रयत्न किसी भी प्रकार से सुखप्रद, कल्याणकारी नहीं होता है । कहा भी है "जो सतावे अन्य को, वह सुख कभी पाता नहीं ।।" विशेषार्थ :- नीतिकारों ने कहा है-"पर पीडा सम नहि अधमाई ।" दूसरे के प्रति दुःखोत्पादन का भाव रखने वाला महापापी होता है । पातकी को सुख कहाँ ? नहीं मिलता । व्यासजी ने भी लिखा है अहिंसकानि भूतानि यो हिनस्ति स निर्दयः । तस्य कर्म कि या व्या वर्द्धन्ते वापदः सदा ।। अर्थात् जो व्यक्ति निरपराध जीवों का घात करता है, वह निर्दयी है, उसकी पुण्य क्रिया निष्फल होती है । यही नहीं विपत्तियों वृद्धिंगत होती जाती हैं । कहा है "दया धर्म का मूल है ।" जीवाणं रक्खणं धम्मो ।" अतः करुणाविहीन पुण्य क्रियाएँ भी पापोत्पादक सिद्ध होती हैं । इसलिए मानव को आत्म-सिद्धयर्थ सतत् दया-कृपा का रक्षण करना चाहिए । दयालु पुरुषों का कर्तव्य परत्राजिघांसुमनसां व्रतरिक्तमपि चित्तं स्वर्गाय जायते ।।। अन्वयार्थ :- (परत्र) अन्य प्राणियों को (अजिर्घासुमनसां) नहीं मारने का संकल्प करने वालों की (व्रतरिक्त) व्रतरहित (अपि) भी (चित्तं) मनोवृत्ति (स्वर्गाय) स्वर्ग के लिए (जायते) होती है । अर्थात् जो मानव व्रत धारण करने में असमर्थ है, किन्तु मन में करुणारस से परिपूर्ण है तो अपनी सरल-सहज भावना से वह स्वर्ग सम्पदा प्राप्त कर लेता है । विशेषार्थ:- दया का महात्म्य प्रदर्शित करते हुए कहते हैं कि सभी व्रत एक दया के आश्रय से फलित होते हैं । यशस्तिलक के 4 थे आ. में आचार्य लिखते हैं कि जो राजा स्वयं को दीर्घायु, शक्तिशाली, आरोग्यता युक्त चाहता है उसे स्वयं जीवहिंसा कदाऽपि नहीं करना चाहिए । राज में प्रचलित जीव हिंसा को भी रोकना चाहिए । भारत के वर्तमान शासकों को इस नीति का विशेष मथित रूप में चिन्तन कर मांसाहार, अण्डेप्रचार एवं मद्यादिपान को रोकने की चेष्टा करनी चाहिए । जैन समाज को भी सरकार को भारतीय संस्कृति के अनुकूल शासन व्यवस्था का प्रयास करना चाहिए । कोई पुरुष सुमेरुपर्वत के बराबर भी विशाल धनराशि दान करे और अन्य पुरुष एक जीव को 15
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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