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________________ 1 नीति वाक्यामृतम् N सकती है । अत: स्वानुभूति के स्थान पर विपरीत दुःखानुभव होगा । अतः संतुलित वातावरण बनाकर दानादि करना धर्म का हेतु है । इस विषय में गुरु नामक विद्वान का मन्तव्य विचारणीय है शरीरं पीडयित्वा तु यो वतानि समाचरेत् । न तस्य प्रीयते चात्मा तत्तुष्यात्तप आचरेत् ।। अर्थ :- जो मनुष्य अपने शरीर को कष्ट देकर व्रतों का पालन करता है, उसकी आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती। अर्थात् शक्ति से अधिक तप आर्तपरिणाम का कारण हो सकता है । इसलिए आत्मपुष्टि-सन्तुष्टि कारक ही तपश्चरण करना उचित है। जैनागम में वही तपश्चरण श्रेष्ठ, उत्तम, आत्मकल्याणकारी धर्म कहा है, जिसके आचरण से योगों की क्षति न हो, मानसिक सन्तुलन बना रहे और उत्तरोत्तर तप, ध्यान, त्याग, ज्ञान की वृद्धि की भावना उत्कृष्ट होती जाय । यही धर्म का साधन है । आत्मसिद्धि का उपाय है । परमार्थ का साधक है । "सर्वोत्तम सत्कर्म का निरुपण ॥" सर्वसत्त्वेषु हि समता सर्वाचरणानां परमं चरणम् ।।4।। अन्वयार्थ :- (सर्वा) समस्त (सत्त्वेषु) प्राणियों में (समता) साम्यभान् (हि) निश्चय से (सर्व) सम्पूर्ण (आचरणानाम्) आचरणों का (परमं) सर्वोत्कृष्ट (चरणम्) आचरण (अस्ति) है ।। 4॥ भावार्थ :- संसार के समस्त जीवों के प्रति जीवत्त्व दृष्टि से एक समान बुद्धि, मति का होना सर्वोत्तम आचरण है जिसका जीवन में यथोचित प्रयोग किया जाय वह प्रक्रिया आचरण कहलाती है । आत्मोपयोगी क्रियाएँ सदाचार कहलाती हैं । संसार में जितने भी शील, संयम, तप, दान, जप आदि पुण्यजनक क्रियाएँ हैं उनमें जीव रक्षण सर्वोपरि है । दया का मूल समता है । क्योंकि दया रूपी जाह्नवी के तट पर सर्वगुण धर्म तृणवत् (घास) उत्पन्न होते हैं । दया रूपी जल के सूख जाने पर ये धर्माङ्कर किस प्रकार हरे-भरे रह सकते हैं? कहा भी है दया नदी महातीरे सर्वे धर्मास्तृणाङ्कराः। तस्यां शोषमायातां कि यन्नन्दन्ति ते चिरम् ॥1॥ यही भाव यशस्तिलक उ.पृ. 337 पर भी व्यक्त किये हैं । श्लो. 2-3--4 में जीव दया को एक ओर रखकर धर्म के सभी अवान्तर भेदों को अन्यत्र स्थापित किया जावे, उनमें खेती के फल की अपेक्षा चिन्तामणिरत्न के समान जीवदया ही विशेष फलप्रद होगी। समता वह रसायन है जिसके सेवन से संसार जन्य समस्त ताप नष्ट हो जाते हैं । इसीलिए नीतिकारों ने कहा है "शिष्ट पुरुषों को जूं, खटमल, डांस, मच्छर आदि जीवों का भी अपने बच्चों के समान संरक्षण करना चाहिए । इससे मैत्रीभाव प्रसरता है और इसके त्याग से बैर-विरोध फैलता है । आचार्य श्री आगम में निरूपित करते हैं जीवा जिणवर जो मुणह जिणवर जीव मुणेह सो समभाव परट्टि उ लहु णिव्वाण लहे हि ॥ -
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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