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________________ नीति वाक्यामृतम् मर्मभेदी वचन बोलना, असत्य-असभ्य, निंद्य-कठोर-गर्हित वचन बोलना, आगम विरुद्ध वार्तालाप करना, आर्षपरम्परा के विरुद्ध उपदेश करना आदि अनेक प्रकार से विरुद्ध वाक् प्रयोग करना वाचनिक असंयम है । निरपराध व सापराध प्राणियों की हिंसा करना, परधन हरण करना, धन को ग्यारहवाँ प्राण माना है, किसी की सम्पत्ति हरण करने का अर्थ उसके प्राणों का नाश करना है । चोरी के समान दुःखदायी पाप अन्य है क्या ? नहीं । कुशील सेवन करना, जुआ खेलना, परिग्रह संचय करना, पशु आदि को कोड़े आदि से मारना इत्यादि वध बन्धन के कार्य करना ये सर्व कायिक असंयम हैं । इस प्रकार अव्रतों में प्रवृत्ति करना, शुभ कार्यों में प्रमाद करना, कठोरता रखना, सतत् अतृप्त बने रहना, इन्द्रियों की इच्छानुसार प्रवर्तन करना आदि असंयम के लक्षण हैं । कहा भी है - "अवतित्त्वं प्रमादित्त्वं निर्दयत्त्वमतृप्तता।" इन्द्रियेच्छानुवर्तित्वं सन्तः प्राहु र संयमम्।।1॥ य.ति.च.आ.6. सारांश यह है कि भव्यात्माओं को गुण दोषों का विचार कर गुणग्राही बनने का प्रयत्न करना चाहिए । आत्मार्थी अहर्निश आत्मगुणों की चिन्ता करता है, उन्हीं का अन्वेषण करता है, उनको संचित-प्रकट करने में संलग्न रहता है। समस्त वाह्य विकल्प जालों का परिहार ही निश्चय संयम और मुक्ति का साधक उपाय है। धर्म प्राप्ति के उपाय "आत्मवत् परत्र कुशल वृत्ति चिन्तनं शक्तितस्त्यागतपसी च धर्माधिगमोपायाः" ।।३॥ अन्वयार्थ- (आत्मवत्) अपने समान (परत्र) दूसरों के प्रति (कुशलवृत्ति चिन्तनम्) कल्याणकारी क्रियाओं का विचार करना, (शक्तितस्त्याग) शक्ति-योग्यतानुसार त्याग (च) और (शक्तित: तपः) योग्यतानुसार तपश्चरण करना (धर्माधिगमः) धर्म को अधिगम-प्राप्त करने के (उपायाः) उपाय हैं । विशेषार्थ :- हम दूसरों से अपने प्रति क्या चाहते हैं, वैसा ही अन्य के प्रति व्यवहार करने की चेष्टा करना। प्राणी मात्र के कल्याण की भावना करना, अपने योग्यता तथा द्रव्य, क्षेत्र काल भावानुसार सप्त क्षेत्रों में दान देना, तथ चतुर्विध संघ को आवश्यकतानुसार चार प्रकार का दान देना और यथा शक्ति 12 प्रकार का तपश्चरण करना ये धर्म प्राप्ति के उपाय हैं । इस प्रकार अनुष्ठान करने से भव्य जीवों का विवेक जाग्रत होता है । मन, वचन, काय में सरलता और प्राञ्जलता की झलक प्रकट हो जाती है । नीतिकार शुक्र ने भी कहा है आत्मवित्तानुसारेण त्यागः कार्यों विवेकिनाः । कृतेन येन नो पीड़ा कुटुम्बस्य प्रजायते ।। कुटुम्बं पीडयित्वा तु यो धर्म कुरुते । न स धर्मो हि पापं तद्देश त्यागाय के वलं ।। अर्थात् विवेकी पुरुष को अपने धन के अनुसार दान देना चाहिए । योग्यता के अनुसार त्याग करने से परिवार को कष्ट नहीं होगा और कर्तव्य पालन कर स्वयं को सन्तोष भी होगा । पारिवारिक स्थिति को लक्ष्य में न रखकर । यदि दानादि क्रिया की जायेगी तो परिवार के साथ दानी को भी मानसिक तनाव होना संभव है जिससे अशान्ति भी हो -amun 13
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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