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________________ नीति वाक्यामृतम् आत्मानं मन्यते भद्रं नीचैः परापवादतः । म आमाति परे लोके पाते नरक सम्भवम् ॥1॥ गुणों का महत्व, महापुरुष, सदसद् संगति का फल, प्रयोजनार्थी, निर्धन का धनी के प्रति कर्त्तव्य : ___ न खलु परि माणोरल्पत्वेन महान् मेरुः किन्तु स्वगुणेन ।57 ॥ न खलु निर्निमित्तं महान्तो भवन्ति कलुषितमनीषाः ।।58।। स वन्हे प्रभावो यत्प्रकृत्या शीतलमपि जलं भवत्युषणं ।।59॥ सुचिर स्थायिनं कार्यार्थी वा साधुपचरेत् ।।60॥ स्थितैः सहार्थोपचारेण व्यवहारं न कुर्यात् ॥1॥ सत्पुरुष पुरश्चारितया शुभमशुभं वा कुर्वतो ना स्त्यपवादः प्राणव्यापादो वा ? 1162॥ विशेषार्थ :- सुमेरु पर्वत की महानता परमाणु की लधुता से नहीं है, अपितु स्वयं उसी की उच्चता, रमणीयता व पवित्रतादि गुणों से है, उसी प्रकार मनुष्य की महानता व गौरवता उसके गुणों-विद्वत्ता, सरलता, उदारता, सदाचार आदि सदगणों से आंकी जाती है न कि दृष्टों की दृष्टता से । अर्थात सरोवर को तुच्छ कहने से सागर की गरिमा या विशालता नहीं मानी जाती अपितु स्वयं उसका विस्तार उसे विशाल कहता है उसी प्रकार किसी व्यक्ति विशेष की निन्दा करने या उसे लघु कहने से अन्य को महान या पूज्य नहीं बनाया जा सकता ।।57॥ महापुरुष अकारण विकारभाव को प्राप्त नहीं होते । स्वभाव से वे निर्मल चित्त व उज्जवल बुद्धि धारण करते हैं । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मच्छरों के समान दुष्ट अभिप्राय वाले बिना प्रयोजन के ही रुष्ट हो पीडाकारक हो जाते हैं उस प्रकार सतपुरुष नहीं होते । वे किसी कारण विशेष. होने पर ही कुपित होते हैं 1158 ॥ कहा भी है : नीचेन कर्मणा मेरुर्न महत्व मुपागतः । स्वभाव नियतिस्तस्य यथा याति महत्वताम् ।। गुरु द्वारा न भवान्त महात्मानो निर्निमित्तं कुधान्विताः । निमित्तेऽपि संजाते यथान्ये दुर्जनाः जनाः ॥ भारद्वाजः। स्वभाव से सुशीतल जल भी अग्नि के संस्कार से उष्ण हो जाता है, उसी प्रकार दुर्जनों की दुष्टता से स्वभाव से शान्तिप्रिय शान्त-दान्त महापुरुष भी क्षुभित-कुपित हो जाते हैं । दुष्टों की संगति का असर उन्हें भी प्रभावित कर ही देता है ।159 ॥ वल्लभ देव ने भी कहा है : अश्वः शस्त्रं शास्त्र वीणा वाणी नरश्च नारी च । पुरुष विशेष लब्धवा भवन्ति योग्या अयोग्याश्च 111॥ अर्थ :- घोटक (घोडा) हथियार, शास्त्र (आगम) वीणा और वाणी एवं पुरुष व नारी ये पुरुष विशेष को (शुभ-अशुभ) प्राप्त कर योग्य व अयोग्य होते हैं । अर्थात् सत्संगति और कुसंगति से अच्छे-बुरे हो जाते । 591
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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