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नीति वाक्यामृतम्
जो पुरुष किसी से ऋण लेकर उसे बिना चुकाये ही कालकवलित हो जाता है, उसे भावी (अगले) भव में उस ऋणदाता का सेवक (दास) होकर चुकाना पडता है । परन्तु साधु, 'ब्राह्मण व क्षत्रियों पर यह नियम लागू नहीं होता है। अतएव वे ऋणी नहीं रहते हैं । इसका कारण यह है कि साधुओं व विद्वान ब्राह्मणों से धनेश्वरोंऐश्वर्यवानों का हितसाधन होता रहता है । अत: वे ऋणी नहीं रहते ।। इसी प्रकार क्षत्रिय राजा लोग जो प्रजा से न्यायोचित टैक्स आदि लेते हैं वह ऋण नहीं कहा जाता है 1150-51॥ नारद ने भी कहा है :
ऋणं यच्छति नो यस्तु धनिकाय कथंचन ।
देहान्तरमनुप्राप्तस्तस्य दासत्वमाप्नुयात् ।।1॥ व्याधिनस्त शरीर, साधु जीवन-धारी महापुरुष, लक्ष्मी, राजाओं का प्रिय व नीच:
तस्यात्मदेह एव वैरीयस्य यथालाभमशनं शयनं च न सहते ।।2।। तस्य किमसाध्यं नाम यो महामुनिरिव सर्वानीनः सर्वक्लेश सहः सर्वत्र सुखशायी च ॥3॥ स्त्री प्रीतिरिव कस्य नामेयं स्थिरा लक्ष्मीः ।।54॥ परपैशून्योपायेनराज्ञां वल्लभोलोकः ।।55 ॥ नीचोमहत्त्वमात्मनो मन्यते परस्य कृते नापवादेन ॥6॥
विशेषार्थ :- जिसका शरीर रुग्ण-रोगी होने से यथायोग्य भोजन, शयन (निद्रा) लाभ नहीं कर सकता वह सुखदायक नहीं, अपितु दुःख देने वाला शत्रु ही समझना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार शत्रु के भय से मनुष्य न तो प्रीतिपूर्वक भोजन करने का आनन्द ले सकता है और न ही निश्चिन्त हो निद्रा का सुखानुभव ही करने में समर्थ होता है ।152 ॥ उस पुरुष को संसार में कौनसा कार्य असाध्य है ? जो महापुरुष महा-मुनियों की भाँति उत्त मध्यम-जघन्य प्रकार के शुद्ध भक्ष्य अन्न का भोजन करने की रुचि वाला हो, तथा समस्त प्रकार के शीत, उष्ण, आदि कष्टों को सहन करने में सक्षम हों, एवं सर्वत्र पाषाण भूमि-फलकादि पर सुखपूर्वक शयन करने में समर्थ हों ? इस प्रकार की रुचि वालों को संसार में कोई भी कार्य दुर्लभ व असाध्य नहीं होता ||53|| सांसारिक वैभव व लक्ष्मी स्त्री के प्रेम समान क्षणभंगुर-अस्थिर-नाश युक्त है । 54 | जैमिनि व गुरु ने भी कहा है :
भोजनं यस्य नो याति परिणामं न भक्षित निद्रा सुशयने नैति तस्य कायो निजोरिपुः ।।1।। नारुचिः क्वचिद्धान्ये तदन्तेऽपि कथंचन । निद्रांकुशं हि तस्याऽपि स समर्थः सदाभवेत् ।11॥
राजा लोग प्राय: कान के कच्चे होते हैं । इसीलिए कहा है कि राजाओं को वे ही लोग वल्लभ-प्रियपात्र होते हैं जो उनके समक्ष अन्य लोगों की चुगली किया करते हैं ।।55 || नीच या तुच्छ पुरुष स्वभाव से ही परनिन्दा कर स्वयं को महान मानते हैं ।।56 ।। हारीत व जैमिनि ने भी कहा है :
पैशून्ये निरतो लोको राज्ञां भवति वल्लभः । कातरोऽप्यकुलीनोऽपि बहुदोषान्वितोऽपि च ॥
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