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________________ नीति वाक्यामृतम् । जीवितव्ये सन्देहो निश्चितश्चापायः ।।48 ॥ अत्यर्थ हयबिनोदोऽङ्गभङ्मनापाद्य न तिष्ठति 149॥ऋण मददानो दासकर्मणा निर्हरेत् ।।50 1 अन्यत्र यतिब्राह्मण क्षत्रियेभ्यः ।।51॥ विशेषार्थ :- तीन कार्यों - 1. रति क्रीडा, 2. मन्त्राराधना और 3. भोजन करते हुए व्यक्ति के पास नहीं जाना चाहिए । क्योंकि इन कालों में आने से द्वेष उत्पन्न होता है । यदि कोई काम-सेवन (मैथुन) करने वाले के समीप जाता है तो लज्जावस वह उस आगन्तुक के साथ द्वेष भाव करेगा । मन्त्रसाधना के समय आने पर साधक मन्त्रभेद की आशंका से वह उसे द्वेष का पात्र समझेगा और यदि भोजन बेला में कोई आया और उस समय भोजनकर्ता ने लालच से अधिक भोजन कर लिया जिससे कि उसे वमन (उलटी) अथवा उदर शूल हो गया तो आगत पुरुष का दृष्टि दोष समझकर उससे घृणा करने लगेगा । अतएव उपर्युक्त तीनों कालों को टाल कर किसी से मिलना चाहिए 146 || सींगवाले गाय आदि पशुओं पर विश्वास नहीं करना चाहिए, भले ही वे चिर-परिचित ही क्यों न हो |47 ॥ कहा भी है :शुक्र ने कहा ।। रति मन्त्रासन विधिं कुर्वाणो नोपगम्यते । अभीष्टतमश्च लोकोऽपि यतो द्वेषमवाप्नुयात् ।।1॥ वल्लभदेव- सिंहो व्याकरणस्य कर्तुरहरत् प्राणान् प्रियान पाणिनेः । मीमांसाकृतमुन्ममाथ तरसा हस्ती मुनि जैमिनि ॥ छन्दोज्ञाननिधिं जघान मकरो वेलातटे पिंगलम् । चाज्ञानावृतचेतसामतिरुषां कोऽर्थस्तिरश्चांगुणैः ॥॥ अर्थ :- व्याकरणाचार्य पाणिनी का प्राणान्त सिंह ने किया, मीमांसा कर्ता जैमिनि का वध उन्मत्त हाथी ने, छन्द शास्त्र निर्माता पिंगल को सागर तट पर मगर ने विदारण किया । अतः अज्ञानी बेचारे मूक तिर्यञ्चों से स्वयं ही सावधान रहना चाहिए । जो व्यक्ति मदगलन से उन्मत्त गज पर आरोहण करता है उसका जीवन खतरे में रहता है और यदि शुभ. भाग्य से वह जीवन्त रह भी जाये तो उसके अङ्ग-भङ्ग तो अवश्य ही होते हैं 148 ॥ अश्वारोहण करने वाला यदि उसके साथ अधिक विनोद-क्रीडा करता है तो वह फिर आरोही (सवार) के हाथ-पांव तोडे बिना नहीं रहता 19॥ गौतम व रैभ्य ने कहा है : यो मोहान्मत्त नागेन्द्रं समारोहति दुर्मतिः । तस्य जीवितनाशः स्याद् गात्रभंगस्तु निश्चितः ।।1।। अत्यर्थं कुरुते यस्तु वाजिक्रीडां स कौतुकाम् । गात्रभंगोभवेत्तस्य रैभस्य वचनं यथा ॥1॥ 589
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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