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नीति वाक्यामृतम् । देशाधारान्नयाचारौ स्त्रियापेक्षासमन्विती ? देयो दायादभागस्तु तेषां चैवानुरुपतः ।।1॥ एक स्मै दीयते सर्व विभवं रूप सम्भवम् ।
यः स्यादद्भुतस्तु सर्वेषां तथा च स्याद् समुद्भवः ।।2।। अधिक घनिष्ट संसर्ग-परिचय से किसकी अवज्ञा नहीं होती ? सभी की होती है | 43 ॥ यदि भृत्य-सेवक अपराध करे और उसका स्वामी उसे अपने पास ही स्थान आश्रय देवे तो वह स्वामी दण्ड का पात्र होता है क्योंकि अपराधी का पक्षपाती भी अपराधी माना जाता है । यदि राजा या स्वामी अपने नौकर को नहीं रखता निकाल देता है तो वह अपराधी नहीं है । 44 ॥ वल्लभदेव व गुरु ने भी अतिपरिचय और नौकर के विषय में कहा है :
अतिपरिचयादवज्ञाभवति विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः । लोकः प्रयागवासी कूपे स्नानं समाचरति ।। यः स्वामी न त्यजेदभृत्यमपराधे कृते सति ।
सशस्य पशिशो वो दुरलभृत्य समुद्भवः ।।। उस सागर की विशालता-महत्ता से क्या प्रयोजन ? कुछ भी नहीं । क्योंकि जो रत्नाकर तिनकों को ऊपर शिर पर धारण करे और दीर्घ भारी वस्तुओं की नीचे डुबा दे । इसी प्रकार साधारण लोगों को सम्मानित करने वाला और पूज्य-बडे पुरुषों का अपमान करने वाला स्वामी भी निंद्य है IAS ॥ कहा भी है :
अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूग्यानामपमानता ।
त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ।। अर्थात् जहाँ सामान्यजनों की पूजा और पूज्य महापुरुषों का अपमान हो, वहाँ अकाल, मृत्यु और भय वृद्धि को प्राप्त होते हैं । विष्णु शर्मा ने भी कहा है :
स्थानेष्वेन नियोज्यन्ते भृत्याश्च निजपुत्रकाः । न हि चूडामणिंपादे कश्चिदेवात्र संन्यसेत् ।।
अर्थ :- सेवक और पुत्रों को यथायोग्य स्थानों पर नियुक्त करना चाहिए । तभी शोभा है, क्योंकि चूडामणि को पैरों में कौन धारण करेगा? कोई भी सुबुद्ध नहीं पहनेगा । वह तो शीश पर लगाने से ही शोभित होता है 17॥ रति आदि की बेला, पशुओं के प्रति वर्ताव, मत्त गज व अश्व की क्रीडा एवं ऋण :
रतिमन्त्राहारकालेषु न कमप्युपसेवेत ।।46 ।। सुष्टुपरिचितेष्वपि तिर्थक्षु विश्वास न गच्छेत् ।।47 ।। मत्तवारणारोहिणो
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