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नीति वाक्यामृतम्
पिशुनो निन्दकै श्चेव कृतघ्नो दीर्घरोषकृत् ।
एते तु कर्म चाण्डाला जात्या चैव तु पञ्चमः ॥1॥ छह प्रकार के पुत्रों को किनको दायादि अधिकार प्राप्त होते हैं ? वे पुत्र इस प्रकार हैं :- 1. औरस-अपनी धर्मपत्नी से उत्पन्न हुआ पुत्र, 2. क्षेत्रज - दूसरे स्थान में धर्मपत्नी से प्रसव हुआ, 3. दत्तक - गोत्रीय परिवार से गोद आया पुत्र, 4. कृत्रिम - बन्धन से मुक्त किया हुआ, 5. गुढोत्पन्न - गूढगर्भ से उत्पन्न हुआ और 6. अपविद्ध - पति के अन्यत्र चले जाने पर होने वाला पत्र 1 इन छहों प्रकार के पुत्रों को दायाद अर्थात् पैतृक सम्पत्ति करने का अधिकार होता है । पिता के स्वर्गारोहण होने के पश्चात् उसकी स्मृति में अन्मादि (पिण्ड) का दान करने के ये अधिकारी होते हैं 41 || अन्य नीतिकारों ने भी कहा है:
और सो धर्मपत्नीतः संजातः पुत्रिका सुतः । क्षेत्रजः क्षेत्रजातः स्वगोत्रेणेतरेण वा 111॥
दघान्माता पिता बन्धुः स पुत्रो दत्त संजितः । कृत्रिमो मोचितो बन्धात् क्षत्रयद्धेन वा जितः ॥2॥
गृह प्रच्छन्नकोत्पन्नो गूढजस्तु सुतः स्मृतः । गते मृतेऽथवोत्पन्नः सोऽपविद्ध सुतः पत्तौ ।।3॥
इसी के पाठान्तर का अर्थ निम्न है :
1. कानोन - कन्या से उत्पन्न पत्र, 2. सहोढ (दामाद), 3. क्रीत-मोल खरीदा हुआ, 4. पौनर्भव-विधवा से उत्पन्न हुआ, 5. स्वयंत और 6. शूद्रा से जन्मा ये पुत्र अधम हैं । इन्हें पैत्रिक सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकार नहीं है, और न ये पिता के मरने पर उसकी स्मृत्ति में अन्नदान देने के अधिकारी हैं 141 || दायभाग के नियम, अतिपरिचय, सेवक के अपराध का फल, महत्ता का दूषण :
देशकाल कुलापत्यस्त्रीसमापेक्षो दायाद विभागोऽन्यत्र यतिराजकुलाभ्यां 42॥अतिपरिचयः कस्यावज्ञा न जनयति ।43 ।। भृत्यापराधे स्वामिनोदण्डो यदिभृत्यं न मुञ्चति ।44 ॥ अलं महत्तया समुद्रस्य यः लघु शिरसा वहत्यधस्ताच्च नयति गुरुम् 145॥
विशेषार्थ:- आचार्यकुल और राजकुल को वर्जित कर दायभाग (पैतृक सम्पत्ति प्राप्त करना) ये अधिकारियों में देश, काल, पुत्र, स्त्री व शास्त्र की अपेक्षा भेद होता है । अर्थात् भिन्न-भिन्न देशों और कुलों में दायाधिकारी एक समान नहीं होते हैं । यथा केरल देश में पुत्र उपस्थित रहने पर भी भाग्नेय-भानजा पैतृक सम्पत्ति का अधिकारी होता है । अन्य नहीं । किन्हीं-किन्हीं कुलों में दुहिता-पुत्री का पुत्र दायाधिकारी होता है इत्यादि और भी नियम यथायोग्य रहते हैं । परन्तु आचार्यकुल में उसका प्रधान शिष्य (जैन दिगम्बराम्राय के अनुसार प्रमुख दीक्षित मुनि ही आचार्य परम्परा को पदवी के योग्य माना गया है । अन्य नहीं इसी प्रकार राजकुल में प्रधान महिषी-पटरानी से उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र ही राज्याधिकारी होगा अन्य नहीं 142 ॥ गुरु ने भी कहा है :
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