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________________ नीति वाक्यामृतम् दूर रहना ही श्रेष्ठ है ! 133 || प्रत्येक देश के बारे में लोगों के द्वारा नवीन कथा, विन्यास आदि का वर्णन सुनकर सुन्दर प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में वह रमणीयता कितने अंश में है इसकी परीक्षा अवश्य करनी चाहिए । अतः बिना परीक्षा किये ही किसी के कहने मात्र से ही परदेश को गुणयुक्त समझकर स्वदेश का त्याग नहीं करना चाहिए 134 || कहा भी है : दुरारोहा हि राजानः पर्वता इव चोन्नताः । दृश्यन्ते दूरतो रम्याः समीपस्थाश्च कष्टदाः 117 ॥ गौतमः रचित दुर्भिक्षाट्योऽपि दुःस्थितोऽपि दूराजसहितोऽपिच । स्वदेशं च परित्यज्यनान्यस्मिंश्चिच्छुभे व्रजेत् ॥ रैम्यः रचित धन विहीन दरिद्री व्यक्ति का जीवन कष्टसाध्य होता है, उसका जीवन निर्वाह सर्वत्र दुःखद और पीडाकारक होता है अतः सारी पृथ्वी मनुष्यों से युक्त भी भयङ्कर अटवी के समान होती है । क्योंकि दारिद्रय व कुटुम्ब हीनता के कारण उसे सांसारिक सुख प्राप्त नहीं होता । धनाढ्य पुरुष को वनस्थली भी राजधानी के समान सुख देने वाली हो जाती है 1135-36 ॥ निर्धनस्य मनुष्यस्य वान्धवैः रहितस्य च I प्रभूतैरपि संकीर्णा जनै भूमिर्महाटवी ॥1॥ रैम्यः ।। विनाशकाल आने पर प्रायः सभी की बुद्धि विपरीत हो जाती है, क्योंकि निकट विनाश वाला व्यक्ति अपने हितैषियों से विपरीत-विरोधी हो उनकी निन्दा और शत्रु की प्रशंसा आदि विपरीत कार्य करता है, इससे विदित होने लगता है कि इसका विनाश सन्निकट आया है ।137 ॥ भाग्यशाली पुण्यात्मा पुरुषों को विपत्तियाँ कभी भी नहीं आती हैं । 38 ।। पूर्वोपार्जित शुभ कर्म अनुकूल रहने पर भाग्यशाली पुरुष को कौनसी सम्पदा प्राप्त नहीं होती ? सभी सम्पत्तियाँ चरण चूमती हैं । भाग्यवान की कौन-कौनसी विपत्तियाँ नष्ट नहीं होती ? सभी नष्ट होती हैं ।। कहा भी है। - 586 यस्य स्यात् प्राक्तनं कर्म शुभं मनुजधर्मणः । अनुकूलं तदा तस्य सिद्धिं यान्ति समृद्धयः ॥ 11 ॥ दूसरों की निन्दा करने वाला, चुगलखोर, कृतघ्न परोपकार को नहीं मानने वाला अर्थात् गुणभेटा और दीर्घकाल तक क्रोध करने वाला ये चारों प्रकार के मनुष्य अनीति करने वाले होने से कर्म चाण्डाल कहलाते हैं | 140 ॥ गर्ग ने भी यही कहा है :
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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