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________________ नीति वाक्यामृतम् Nस्वामी और दाता का स्वरूप, राजा, परदेश, बन्धुहीन दरिद्र तथा धनाढ्य के विषय में निकट विनाशी की बुद्धि, पुण्यवान, भाग्य की अनुकूलता, कर्मचाण्डाल एवं पुत्रों के भेद :स प्रभुर्यो बहून विभर्ति कि मर्जुनतरोः फलसम्पदा या न भवति परेषामुपभोग्या ।31॥ मार्गपादप इव सर्वेषां संबाधाम |1321 पर्वता इव राजानो दरतः सन्दरालोकाः |3||यातरमणीयः सर्वोऽपि देशः ।।34 ॥ अधनस्याबान्धवस्य च जनस्य मनुष्यवत्यपि भूमिर्भवति महाटवी 105॥ श्रीमतो हारण्यान्य पिराजधानी ।।36॥ सर्वस्याप्यासन्न विनाशस्य भवति प्रायेणमतिर्विपर्यस्ता 187॥ पुण्यवत: पुरुषस्य न क्वचिदप्यस्ति दौः स्थ्यम् ।।38 ॥ देवानुकूल: कां सम्पदं न करोति विघट्यति वा विपदम् 189॥ असूयक: पिशुनः कृतजो दीर्घरोष इति कर्मचाण्डालाः ॥10॥ औरसः क्षेत्रजोदत्तः कृत्रिमोगूढोत्पन्नोऽपविद्धएतेषद् पुत्रा दायादाः पिण्डदाश्च 141 ।। पाठान्तर :- कानीनः सहोढः क्रीत: पौनर्भवः स्वयंदत्तः शौद्रश्चेतिषट् पुत्रान दायादा नापि पिण्डदाश्च ।411 विशेषार्थ:- जो पुरुष सामान्य धन का स्वामी होकर भी उदार चेता है, अनेकों असहायों की सहायता करता है, सबके पालन-पोषण की व्यवस्था में मनरन्क रहता है वही स्वारी है जो धनाहा होकर भी कृपणतावश किसी का उपकार नहीं करता उसका धन अर्जुनवृक्ष के फल समान निरर्थक है । अर्थात् जिस प्रकार अर्जुनवृक्ष का फल किसी के उपभोग में न आकर यों ही नष्ट हो जाता है उसी प्रकार कृपण का प्रभूत धन-वैभव व्यर्थ ही समझा जाता है |B1|| जो पुरुष मार्ग के किनारे स्थित वृक्षों की भांति पथिकों के अनेकों उपद्रवों को सहन करता हुआ भी उनका उपकार करता है उसी प्रकार याचकों के अनेकों उपद्रवों को भी सहनकर उनकी इच्छाओं की पूर्ति करता है वह श्रेष्ठ होता है । अर्थात् जिस प्रकार राह पर स्थित वृक्ष के फल-फलों पत्तियों को तोड़ने पर भी वह उसे उत्तम छाया व विश्रान्ति प्रदान करता है उसी प्रकार जो अभ्यागतों के भोजन-शयन आदि की व्यवस्था को उपद्रव न समझकर उनका यथोचित सम्मान ही करता है वही श्रेष्ठ दानी कहलाता है 132 || व्यास और गुरु ने भी दाता व स्वामी के विषय में यही कहा है : स्वल्पवित्तोऽपि यः स्वामी यो विभर्ति बहून् सदा । प्रभूत फल युक्तोऽपि सम्पदाप्यर्जुनस्य च ॥ यथामार्ग तरुस्त द्रत्सहते य उपद्रवम् । अभ्यागतस्य लोकस्य स त्यागी नेतरः स्मृतः ॥ भूपति लोग पर्वतों के समान दूर से ही शोभित दिखाई पड़ते हैं । समीप जाने पर नहीं । अर्थात् जिस प्रकार विशाल भूधर पार्श्ववर्ती अनेकों पल्लवित-पुष्पित वृक्षों से हरा-भरा मनोहर दृष्टिगत होता है, परन्तु जब उसके ऊपर नजदीक जाकर देखा जाता है तो वहाँ अनेकों थूहर आदि कटीले वृक्षों, विशाल चट्टानों कंकरीली राहों से भरा भयङ्कर कष्टप्रद प्राप्त होता है । इसी प्रकार भूपति भी छत्र, चामर, सिंहासन आदि विभूतियों से युक्त दूर से अति रमणीय प्रतीत होता है, परन्तु समीप जाने पर आर्थिक दण्डादि द्वारा पीडित करने वाले कष्टदायक होते हैं । अत: उनसे 585
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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