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नीति वाक्यामृतम्
___ अपने प्रयोजन की सिद्धि के इच्छुक पुरुष को योग्य एवं स्थिर चित्त वाले पुरुष की सेवा करने में दत्तचित्त म होना चाहिए जिससे कि वह उसके प्रयोजन की सिद्धि में सहायक बना रहे । 60 ॥ शुक्र ने भी कहा है :
कार्यार्थी वा यशोर्थी वा साधु संसेवयेस्थिरम् ।
सर्वात्मना ततः सिद्धिः सर्वदा यत् प्रजायते ॥ निर्बल व दरिद्र पुरुष को स्थिरशील-धनवान पुरुषों के साथ धन देने का व्यवहार नहीं करना चाहिए । इससे उसकी आर्थिक क्षति-व्यय नहीं होने पाती । अभिप्राय यह है कि धनवान के साथ आर्थिक लेन-दैन का व्यवहार करने से उसके पद-योग्यतानुसार व्यय करना पडेगा और स्वयं के पास उतनी राशि है नहीं तो और दारिद्रय ही घेर लेगा । अतः समवर्तियों के साथ ही धनादि का लेन-देन वाला व्यवहार करना चाहिए 161 ।। गुरु ने भी कहा
计求应可印职前亦明研团。
महभिः सह नो कुर्याद् व्यवहारं सुदुर्बलः । गतस्य गोचरं तस्य न स्यात् प्राप्त्या महान व्ययः ।।1।।
महापुरुषों की संगति का माहात्म्य अद्भुत प्रभावशाली होता है, महात्माओं के आश्रित रहने वाला पुरुष असावधानी या प्रमादवश यदि कोई अपराध व अयोग्य कार्य भी कर बैठता है तो उसे लोकापवाद का पात्र नहीं बनना पडता । अर्थात् उसकी निन्दा नहीं होती और प्राणदण्ड जैसा दण्ड भी प्राप्त नहीं होता 162 ॥ प्रयोजनार्थी दोष नहीं देखता, चितापहारी वस्तुए, राजा के प्रति कत्तव्यः
सपदि सम्पदमनुबध्नाति विपच्च विपदं ।।63॥ गोरिवदुग्धार्थी को नाम कार्यार्थी परस्पर विचारयति । 64॥शास्त्रविदः स्त्रियश्चानुभूतगुणाः परमात्मानं रञ्जयन्ति ।।65॥चित्रगतमपि राजानं नावमन्येत क्षात्रं हि तेजो महती सत्पुरुष देवता स्वरूपेण तिष्ठति ।66 ।।
विशेषार्थ :- सम्पदा सम्पत्ति बढाती है और विपत्ति आपत्तियों को आह्वान करती है 1 अभिप्राय यह है कि सत्पुरुषों का समागम तत्काल सम्पत् प्रदान कराता है और विपत्तियों का नाश करता है ।।63॥ हारीत ने भी कहा है :
महापुरुष सेवायामपराधेऽपि संस्थिते । नापवादोभवेद् पुंसांन च प्राणवधस्तथा ।।1॥
कोरे
शीघ्रं समान ! नः यो लक्ष्मी नशियेद्व्यसनं महत् ।
सत्पुरुषे कृता सेवा कालेनापि चनान्यथा ।12॥ संसार में स्वार्थी-प्रयोजनार्थी पुरुष कौन ऐसा होगा जो अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए दूध की चाहना वाले के समान गाय के विषय में विचार नहीं करने । सदृश मनुष्य के विषय में विचार करता हो? कोई नहीं
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