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नीति वाक्यामृतम् प्राणी रक्षा आदि इष्ट कार्य की क्षति नहीं होती अपितु उसकी सिद्धि होती है । क्योंकि वक्ता के वचनों में सत्यता व असत्यता लौकिक प्रमाणों द्वारा निर्णीत की जाती है, किसी के कहने मात्र से नहीं अपितु नीतिपूर्वक विचार करने से मिथ्या व सत्य का निर्णय किया जाता है । अतएव विशिष्ट-गुरुतर इष्ट प्रयोजनार्थ कहे हुए मिथ्या वचन भी सत्य माने जाते हैं । अहिंसा विशिष्ट-गुरुतर इष्ट प्रयोजनार्थ कहे हुए मिथ्या वचन भी सत्य माने जाते हैं । अहिंसा परमोधर्म के पोषक वचन असत्य भी सत्य में गर्भित हैं Insकिसी प्राणी का प्राणघात होने वाला है उस समय उसकी रक्षार्थ यदि असत्य-झूठ कहा जाता है तो वह वचन सत्य है असत्य नहीं भी है ।।19॥ वादरायण ने भी कहा है :
तदसत्यमपि नासत्यं यदत्र परिगीयते ।
गुरुकार्यस्य हानि चज्ञात्वा नीतिरिति स्फुटम् ॥1॥ व्यास ने पाँच स्थानों पर असत्यभाषण को मिथ्यावचन नहीं है कहा है:
नासत्ययुक्तं वचनं हिनस्ति, न स्त्रीषु राजा न विवाह काले
प्राणात्यये सर्वधनापहारी, पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ॥॥ अर्थात् प्राण रक्षार्थ-वध नहीं हो, स्त्रियों, राजा व विवाहकाल में, सर्वधनापहार संकट में असत्य वचन भी सत्य की कोटि में भी आते हैं ।।
धन सर्व पापों का मूल है । धनार्थी पुरुष अपनी माता का भी वध करने से नहीं चूकता । यदि उसके लिए (धनप्राप्त्यर्थ) यदि असत्य-मिथ्याभाषण करे तो क्या आश्चर्य ? कुछ भी नहीं । अतएव धन के विषय में किसी का भी विश्वास नहीं करना चाहिए । भले ही वह अनेकों शपथ भी क्यों न खाये T20 ॥ शुक्र ने भी कहा है :
अपि स्याद्यदि मातापि तां हिनस्ति जनोऽधनः ।
किं पुनः कोशपानाचं तस्मादर्थे न विश्वसेत् ।1।। भाग्याधीन वस्तुएँ, रतिकालीन पुरुष वचनों की मीमांसा, दाम्पत्य प्रेम की अवधि, युद्ध में पराजय का कारण, स्त्री को सुखी बनाने से लाभ, विनय की सीमा, अनिष्ट प्रतीकार, स्त्रियों के बारे में, साधारण मनुष्य से लाभ व लेख, युद्ध सम्बन्धी नैतिक विचार :
सत्कला सत्योपासनं हि विवाह कर्म, दैवायत्तस्तु वधूवरयोर्निर्वाहः ॥21॥ रतिकाले यत्रास्ति कामार्तो यन्न ते पुमान्न चैतत्प्रमाणम् ।।22॥ तावत्स्त्रीपुरुषयोः परस्परं प्रीतिर्यावन्न प्रातिलोम्यं कलहो रतिकैतवं
123|| तादात्विक बलस्य कतोरणे जयः प्राणार्थ: स्त्रीष कल्याणं वा 124॥ तावत्सर्वः सर्वस्यान वत्तिपरो यावन भवति कृतार्थः 1125 ॥अशुभस्य कालहरणमेव प्रतीकारः ।।26 ।। पक्वान्नादिव स्त्री जनाहाहोप शान्तिरेव प्रयोजनं किं तत्र रागविरागाभ्याम् ।।27।। तृणेनापि प्रयोजनमस्ति किं पुन ने पाणिपादवता मनुष्येण ।।28।। न कस्यापि लेखमवमन्येत, लेखप्रधाना हि राजानस्तन्मूलत्वात् सन्धि-विग्रहयोः सकलस्य जगद् ,व्यापारस्यच ।।29॥ पुष्पयुद्धमपि नीतिवेदिनो नेच्छन्ति किं पुनः शस्त्रयुद्धम् ॥30॥
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