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नीति वाक्यामृतम्
विशेषार्थ :- संसार में मनुष्यों को सम्यक् कलाओं का परिज्ञान, सत्य की उपासना अर्थात् समीचीन धर्म, M तत्त्व, द्रव्य, वस्तुओं में रुचि, तथा विवाहादि सम्बन्ध पूर्वार्जित पुण्यकर्मों के उदय से ही प्राप्त होती हैं परन्तु विवाह के अनन्तर दाम्पत्य जीवन का सुख-शान्तिपूर्वक निर्वाह भी उनके भाग्य की अनुकूलता पर ही निर्भर करता है 121॥ काम पीडित पुरुष रतिकाल में (काम सेवन के समय) ऐसा कोई भी वचन (सत्य व असत्य) बाकी नहीं रखता, जिसको वह अपनी प्रियतमा (पत्नी) से नहीं बोलता हो । वह सभी असत्य भाषण बोलता है, परन्तु उसके वे वचन प्रामाणिक नहीं होते । अभिप्राय यह है कि विषयाभिलाषी व सज्जाति सन्तान के इच्छुक पुरुष को रतिकाल के समय तात्कालिक प्रिय मधुर वचनों द्वारा अपनी प्रिया को अनुरक्त करना चाहिए ।22 || गुरु एवं राजपुत्र ने भी कहा है :
विद्यापत्यं विवाहश्च दम्पत्योश्चामिता रतिः । पूर्व कर्मानुसारेण सर्व सम्पद्यते सुखम् ॥1॥ नान्याचिन्तां भजेन्नारी पुरुषः कामपण्डितः ।
यतो न दशयेद्भावं नैवं गर्भ ददाति च ।।1॥ विद्या, कला विद्या-विज्ञानादि पूर्व कर्माधीन ह
दाम्पत्य जीवन भारतीय संस्कृति में पवित्र सनथ जाना जाता है। दम्पत्तियों में पारस्परिक प्रेम तभी तक रहता है जब तक कि उनमें प्रतिकूल का, कलह और विषयोगभोग सम्बन्धी कुटिलता नहीं पायी जाती 123 1 जिस विजेता के पास अल्प समय तक टिकने वाली कम सेना हो, वह शत्रु पर कैसे विजय प्राप्त कर सकता है ? नहीं कर सकता । इसी प्रकार स्त्रियों का कल्याण (उपकार) करने से भी मानव अपनी प्राण रक्षा करने में समर्थ नहीं होता है । संग्राम और स्त्री प्रेम का विरोध है । युद्ध में विजयलाभार्थ मजबूत प्रचुर सुभटों का संग्रह होना चाहिए। सशक्त सैन्यदल होना अनिवार्य है तथा विवेकी पुरुष नारीकृत उपकार को प्राण रक्षा का साधन नहीं समझे ।24 || राजपुत्र व शुक्र का भी यही अभिप्राय है :
ईषः कलह कौटिल्यं दम्पत्योर्जायते यदा । तथाकोश विदेहं गस्ताभ्यामेव परस्परम् ॥1॥ तावन्मात्रं बलं यस्य नान्यत् सैन्यंकरोति च । शत्रुभिहीन सैन्यः स लक्षयित्वा निपात्यते ।।1।।
संसार में एक दूसरे के प्रति प्रीति व स्नेह एवं श्रद्धा विनय का प्रदर्शन करते हैं जब तक कि उनके स्वार्थ की सिद्धि नहीं होती । इष्ट प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर कौन किसको पूछता है ? कोई नहीं पूछता ।।25 ॥ अपने से विरोध करने वाले कलहकारी व्यक्ति से समय पर नहीं मिलना ही उसकी शान्ति का उपाय है । अर्थात् शत्रुता करने वाला मनुष्य समय पर न मिलकर काल का उल्लंघन करने पर उसके साथ मधुर भाषण कर वंचित किया जाता है तभी वह शान्त होता है अन्यथा नहीं ।।26 || व्यास और नारद ने भी कहा है :
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