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________________ नीति वाक्यामृतम् यह " मालतीमाधव " एक नाटक है। इसमें लिखा है कि माधव के पिता देवरात ने अत्यन्त दूर रहते हुए भी 'कामन्दकी' नामक एक सन्यासिनी को प्रसन्न किया । उसके प्रयोगों से उसे मालती के निकट भेजा और अपने पुत्र माधव के लिए मालती को प्राप्त कर लिया । यह उसकी बुद्धिकौशल का ही माहात्म्य है 17 ॥ प्रज्ञावानों की बुद्धि ही शत्रु पर विजयश्री प्राप्त करने में सफल शस्त्र माना गया । क्योंकि जिस प्रकार वज्र प्रहार से ताड़ित किये हुए पहाड़ - पर्वत पुन: पर्वत रूप से नहीं बनते उसी प्रकार विद्वानों की बुद्धि से विजित शत्रु पुनः शत्रु भाव को प्राप्त नहीं होते । 8-9 ॥ गुरु ने भी कहा है : प्रज्ञाशस्त्रममोघं च विज्ञानाद् बुद्धि रुपिणी । तया हता न जायन्ते पर्वता इव भूमिपाः ॥1 ॥ डरपोक, अतिक्रोध, युद्धकालीन, राजकर्तव्य, भाणमाहात्य, बशिष्ट शत्रु के प्रति राजा का कर्त्तव्य परैः स्वस्याभियोगमपश्यतों भयं नदीमपश्यत उपानत्परित्यजनमिव ॥10 ॥ अतितीक्ष्णो बलवानपि शरभ इव न चिरं नन्दति ।।11 || प्रहरतोऽपसरतो वा समे विनाशे वरं प्रहारो यत्र नैकान्तिको विनाशः ॥ 12 ॥ कुटिला हि गतिर्देवस्य मुमूर्षुमपि जीवयति जिजीविषुमारयति 1113 ॥ दीपशिखार्या पतंगवदैकान्तिकं विनाशेऽविचारमपसरेत् ||14|| अन्वयार्थ :- ( परैः) शत्रु (स्वस्य) अपने (अभियोगम्) आक्रमण को (अपश्यतः) नहीं देख ( भयम्) भय माने तो (नदीम्) नदी को (अपश्यत) नहीं देख (उपानत्) जूते (परित्यजमन्) उतारने वाले ( इव) समान 1110 ॥ (अतितीक्ष्णः) अतिक्रोधी (बलवान्) वलिष्ठ (अपि) भी (शरभः) अष्टापद (इव) समान (न) नहीं (चिरम्) अधिक (नन्दति ) जीता है 1111 || ( प्रहरत: ) प्रहारव्यात ( अपसरतः ) भागता हुआ (समे विनाशे) समर में विनाश (वरं) श्रेष्ठ (प्रहारः) प्रहार श्रेष्ठ है (यत्र) जहाँ (विनाश:) मरण (एकान्तिकः) निश्चित (न) नहीं है 1112 ॥ (दैवस्य) भाग्य की (गति) भविता (हि) निश्चय से (कुटिला) दुष्ट है (मुमूर्षः) मरता हुआ (अपि) भी ( जीवयति ) जिलाता है ( जिजीविषुः ) जीते हुए को ( मारयति) भारता है ।113 | ( दीपशिखायाम्) दीप लौ में (पतंगवत्) पतंग समान ( ऐकान्तिके) निश्चित (विनाशे) विनाश होने पर (अविचारम्) बिना विचारे ( अपसरेत् ) संग्राम से दूर हो ||14 ॥ विशेषार्थ :- जिस प्रकार नदी को देखे बिना ही कोई भय से त्रस्त होकर जूते उतार कर हाथ में ले ले तो वह हास्य का पात्र होता है उसी प्रकार शत्रु कृत उपद्रव को जाने बिना ही पहले से भयातुर होने वाला व्यक्ति भी हास्य का पात्र होता है । अत: शत्रु द्वारा आक्रमण किये जाने पर उसका बल-पौरुष देखकर यथोचित प्रतिकार करना चाहिए ||10 ॥ शुक्र ने भी यही कहा है : यथा चादर्शने नद्या उपानत्परिमोचनम् । तथा रात्राव दृष्टेऽपि भयं हास्याय भूभुजाम् ॥1 ॥ अत्यन्त कोप उचित नहीं क्योंकि वह नाश का कारण बनता है । क्रोधी वलिष्ठ होने पर भी अष्टापद के समान चिरकाल तक जीवित नहीं रह सकता । नष्ट हो जाता है । अर्थात् जिस प्रकार अष्टापद मेघ की गर्जना 552
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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