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________________ नीति वाक्यामृतम् सुनकर उसे हाथी की चिंघाड समझ कर सहन न करता हुआ पर्वत के शिखर से गिरकर पृथ्वी पर पड़ स्वयं नष्ट हो जाता है । अतएव अत्यन्त क्रोधी होना उचित नहीं है Im1॥ संग्राम में शत्रु से युद्ध करना अथवा युद्धभूमि त्याग भाग जाना, इन दोनों में से जिसे जीतने के इच्छुक को अपनी मृत्यु का निश्चय हो जाय तो उसे युद्ध करना ही श्रेष्ठ है क्योंकि संभव है विजयश्री मिल जाय, परन्तु भागने पर तो मृत्यु ही होती है ।12॥ कर्म की गति-भाग्यरेखा बड़ी ही वक्र व जटिल होती है । क्योंकि वह मरने की कामना करने वाले को दीर्घाय व जीवन की आकांक्षा करने वाले को मृत्यु का वरण करा देती है ।13॥ कौशिक ने भी कहा है.. मर्तुकामोऽपि चेन्मर्त्यः कर्मणा क्रियते हि सः । दीर्घायु जीवितेच्छाढ्यो प्रियते तद्रक्तोऽपि सः ॥1॥ जिस समय शत्रु को बलवान देखे । यह निश्चित हो जाय कि अब मुझे दीप शिखा में पतिंगा समान समाप्त ही होना पडेगा, जीवन होमना ही होगा तो बिना कुछ सोचे-विचारे उसे वहाँ से दूर हट जाना चाहिए । अर्थात् समरभूमि त्यागकर निकल जाना चाहिए ।। मौसम ने भी बाइ..:.- iiiiii बलवन्तं रिपुं प्राप्य यो न नश्यति दुर्बलः । स नूनं नाशमभ्येति पतंगो दीपमाश्रितः ।।1।। भाग्य की अनुकूलता, सार असार सैन्य से लाभ-हानि, युद्धार्थ राज प्रस्थान : जीवितसम्भवे देवो देयात्कालवलम् ।।15॥ वरमल्पमपि सारं बलं न भूयसी मुण्डमण्डली ॥6॥ असारखलभंगः सारबलभंग करोति ।।17॥ नाप्रतिग्रहो युद्धमुपेयात् ॥18॥ विशेष स्पष्टीकरण : मनुष्य जब दीर्घायु होता है, तब भाग्य भी अनुकूल हो ऐसी सहायता करता है कि अतिबलवान शत्रु को भी आसानी से परास्त कर देता है अर्थात् बलवान शत्रु को भी मार देता है ।।15 ॥ शुक्र ने कहा है कि : पुरुषस्य यदायुः स्याद् दुर्बलोऽपि तदा परम् । हिनस्ति चेद्वलोपेतं निजकर्म प्रभावतः ।।1।। निस्सार, शक्तिविहीन एवं कर्त्तव्यविमुख विशाल सेना से क्या प्रयोजन है ? कुछ नहीं । इस प्रकार की सेना की अपेक्षा वीर सुभटों-शक्तिशाली और कर्तव्यनिष्ठ थोड़ी-सी सेना भी उत्तम है ।।16॥ नारद ने भी कहा है वरं स्वल्यापि च श्रेष्ठा नास्वल्पापि च कातरा । भूपतीनां च सर्वेषां युद्धकाले पताकिनी ।।1॥ बलवान विजयाभिलाषी के द्वारा शत्रु की सारहीन सेना उसके उपद्रवों से त्रस्त हो जाती है-नष्ट हो जाती ।। 553
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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