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नीति वाक्यामृतम
भूम्यर्थं भूमिपैः कार्यो नयो विक्रम एव च । देशत्यागो न कार्यस्तु प्राणत्यागेऽपि संस्थिते 111 ॥
अर्थ :- राजाओं को अपने राज्य भूमि की रक्षार्थ अपनी नीति व पराक्रम का प्रयोग करना चाहिए । यदि इस कार्य में प्राणोत्सर्ग भी हो तो परवाह नहीं परन्तु देश त्याग कदापि नहीं करना चाहिए। पीठ दिखाना कायरों का काम है वीरों का नहीं 111 ॥3 ॥
शत्रु पर विजयश्री पाने का इच्छुक प्रथम बुद्धि युद्ध करे पश्चात् यदि इस कार्य में सफल न हो, साम नीति भी असफल हो जाय तो फिरुद्ध शस्त्रयुद्ध करना चाहिए। गर्ग ने भी कहा है :
युद्धं बुद्ध्यात्मकं कुर्यात् प्रथमं शत्रुणा सह । व्यर्थेऽस्मिन् समुत्पन्ने ततः शस्त्ररणं भवेत् ॥ ॥
बुद्धियुद्ध निरर्थक होने पर शस्त्रयुद्ध करना चाहिए || 1 ||
बुद्धि युद्ध व बुद्धि युद्ध का माहात्म्य :
न तथैषवः प्रभवन्ति यथा प्रज्ञानतां प्रज्ञाः ॥ 15 ॥ दृष्टेऽप्यर्थे सम्भवन्त्यपराद्वेषवो धनुष्पतोऽदृष्टमर्थं साधु साधयति प्रज्ञावान् ॥16॥ श्रूयते हि किल दूरस्थोऽपि माधवपिता कामन्दकीयप्रयोगेन माधवाय मालतीं साधयामास ॥7॥ प्रज्ञा हि अमोघं शस्त्रं कुशलबुद्धीनाम् ॥ 8 ॥ प्रज्ञाहता कुलिशहता इव न प्रादुर्भवन्ति भूमिभृतः ॥19॥
विशेषार्थ :- जिस प्रकार प्रज्ञावताम् - बुद्धिमानों की प्रज्ञा- तीक्ष्णबुद्धि शत्रु को परास्त करने में अपना कौशल दिखाती है उस प्रकार ईषवः- तीक्ष्ण वाणों का प्रहार प्रभाव नहीं दिखला सकते हैं 115 | गौतम ने भी कहा है न तथात्र शरास्तीक्ष्णाः समर्थाः स्यू रिपो वधे । यथा बुद्धिमतां प्रज्ञा तस्मात्तां सन्नियोजयेत् ॥ ॥
अर्थात् तीक्ष्ण बाणों की अपेक्षा विद्वानों की बुद्धि को शत्रु-बध में विशेष उपयोगी माना जाता है । कहा है "बुद्धिर्यस्य बलं तस्य "
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विशिष्ट तिरंदाज धनुर्धारियों को भी प्रत्यक्ष देखे निशाने पर चलाये तीर असफल हो जाते हैं । अर्थात् वर्तमान लक्ष्य-भेद करने में चूक जाते हैं । परन्तु बुद्धिमान पुरुष अपने बुद्धिबल के माध्यम से परोक्ष बिना देखे हुए पदार्थ भी भली-भांति सिद्ध कर लेते हैं 116 | शुक्र का भी यही अभिमत है :
धानुकस्य शरो व्यर्थो दृष्टे लक्ष्येऽपि याति च । अदृष्टान्यपि कार्याणि बुद्धिमान् सम्प्रसाधयेत् ॥1 ॥
महाकवि श्री भवभूति विरचित "मालतीमाधव'
निम्न दृष्टान्त दर्शनीय है
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