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नीति वाक्यामृतम्
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युद्ध समुद्देश
मंत्री व मित्र का दोष, भूमिरक्षार्थ कर्त्तव्य, शस्त्रयुद्ध का अवसर :
स किं मंत्री मित्रं वा यः प्रथममेव युद्धोद्योगं भूमित्यागं चोपदिशति, स्वामिनः सम्पादयति च महन्तमनर्थ संशयम् ॥ संगाले लो नापानानानानादेव म्लामिनं प्राणसन्देह तुलायामारोपयति ॥2॥ भूम्यर्थ नृपाणां नयो विक्रमश्च न भूमित्यागाय ।। ।। बुद्धियुद्धेन परं जेतुमशक्तः शस्त्रयुद्धमुपक्रमेत् ॥4॥
विशेषार्थ :- (स:) वह (किम्) क्या (मंत्री) सचिव (वा) अथवा (मित्रम्) मित्र है (यः) जो प्रथम ही (युद्धोद्योगम्) संग्राम (च) और (भूमित्यागम्) पृथिवी त्याग का (उपदिशति) उपदेश देता है (स्वामिनः) स्वामी का (महन्तम) बहुत (अनर्थम्) अकल्याण (च) और (संशयम्) सन्देह (सम्पदायति) उत्पन्न करता है ।।
जो मन्त्री व मित्र शत्रु द्वारा आक्रमण किये जाने पर अपने स्वामी को भविष्य में कल्याणकारक अन्य सन्धि, सामनीति आदि का परामर्श न देकर प्रथम ही उसे संग्राम करने या देश छोड़कर भाग जाने को वाध्य करें वे शत्रु हैं । मन्त्री या मित्र नहीं क्योंकि स्वामी के जीवन को ही सन्देह की तुला पर चढ़ा दिया ||1| गर्ग ने कहा
उपस्थिते रिपौ मंत्री युद्धं बुद्धिं ददाति यः । मंत्रिरुपेण वैरी स देशत्यागं च यो वदेत् ॥
वास्तव में ऐसा कौन बुद्धिशाली सचिव होगा जो सर्वप्रथम अपने स्वामी को युद्ध करने का परामर्श देकर उसके प्राणों को सन्देह की तुला पर चढायेगा? कोई भी नहीं । सारांश यह है कि शत्रु द्वारा हमला किये जाने पर प्रथम मन्त्री उसे सन्धि करने का परामर्श दे, उसमें असफल होने पर संग्राम के लिए प्रेरित करे ।।2।। गौत ने भी इसी प्रकार कहा है :
उपस्थिते रिपौ स्वामी पूर्व युद्धे नियोजयेत् । उपायं दापयेद् व्यर्थे गते पश्चान्नियोजयेत् ॥
भूपालों की नीति व पराक्रम की सार्थकता अपनी भूमि की रक्षा में होती है । न कि भूमित्याग कर भाग 2 जाने में। फिर भला भूमि त्याग किस प्रकार हो सकता है ? नहीं । शुक्र ने भी कहा है :
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