________________
नीति वाक्यामृतम् विशेषार्थ :- भूपति का कर्तव्य है कि वह प्रजा से करादि द्वारा इस प्रकार धन ग्रहण करे कि प्रजा को कष्ट न हो और उसका धन भी क्षय न हो ।। अथवा यह भी अर्थ हो सकता है कि नीतिज्ञ परुष इस धन संचय करे कि जिससे साधारण लोगों को कष्ट न हो एवं भविष्य में धन प्राप्ति का सम्बन्ध बना रहे 1101॥ भविष्य में महान् अनर्थ (राजदण्डादि) उत्पन्न करने वाला अन्याय संचित धन स्थिर नहीं रहता है । सारांश यह है कि चोरी आदि से प्राप्त निंद्य अर्थ है । पाप निंद्य हैं। उनके निमित्त से अर्जित सम्पत्ति भी निंद्य ही कहलायेगी
इस प्रकार का अन्यायार्जित धन पूर्व संचित धन को लेकर नष्ट होता है । अतएव नीति निपुण जनों को न्यायोचित धनार्जन करना चाहिए In03 || अत्रि ने भी लिखा है:
अन्यायोपार्जितं वित्तं यो गृहं समुपानयेत् ।
गृह्यते भूभुजा तस्य गृहंगेन समन्वितम् ।।1।। अर्थ प्राप्ति के हेतू तीन हैं - 1. नवीनकृषि व व्यापारादि साधनों के द्वारा नवीन धन उपार्जन होता है । 2. भूतपूर्व धन- वंशपरम्परागत प्राप्त धन । 3. भूतपूर्व में स्वयं संचित किया हुआ कोषादि । ये तीनों प्रकार के लाभ श्रेष्ठ हैं 1103 || शुक्र ने भी कहा है :
उपार्जितो नवोऽर्थ स्याद् भूतपूर्वस्तथापरः ।
पितृपैतामहोऽन्यस्तु त्रयो लाभाः शुभावहाः ॥॥ इसका अभिप्राय भी वही है ।
"इति व्यवहार समुद्देशः ।।"
इति श्री परम पूज्य, विश्ववंद्य चारित्र चक्रवर्ती 20वीं शदी के प्रथमाचार्य श्री 108 मुनिकुञ्जर समाधि सम्राट आचार्य, घोरतपस्वी, एकान्त प्रिय ध्यानी, मौनी परम योगी श्री आदिसागर जी महाराज अंकलीकर के पट्टाधीश मेरे शिक्षा गुरु परमपूज्य तीर्थभक्त शिरोमणि 18 भाषा भाषी घोरोपसर्ग परीषहजयी श्री 108 आचार्य महाबीरकीर्ति जी महाराज के संघस्था, परम् पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ, सन्मार्ग दिवाकर, वात्सल्य रत्नाकर श्री 108 आचार्य विमल सागर जी की शिष्या ज्ञानचिन्तामणि प्रथम गणिनी 105 आर्यिका विजयामती जी द्वारा यह हिन्दी विजयोदय टीका का 29वां समुद्देश परम पूज्य तपस्वी सम्राट् सिद्धान्त चक्रवर्ती, उपसर्ग परीषह विजेताश्री 108 आचार्य सन्मति सागर जी महाराज के पावन चरण सानिध्य में पूर्ण हुआ ।।
।। शुभम् ॐ शुभम् ।।
॥० ॥
549