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नीति वाक्यामृतम्
पर अनेकों विपत्तियाँ आना स्वाभाविक है । क्योंकि सूई से वस्त्र में छेद होने पर उसमें से बहुत लम्बा धागा आसानी से निकल आता । इसी प्रकार देश में पीठ पीछे तनिक-सा भी उपद्रव होने पर राजा को महान क्षति का सामना करना पड़ता है । अतएव इस प्रकार की संभावना रहने पर शत्रु पर आक्रमण चढ़ाई न करे 1187 ॥ वादरायण ने भी कहा है :
स्वल्पेनापि न गन्तव्यं पश्चात्कोपेन भूभुजा । यतः स्वल्पोऽपि तद्वाह्यः स वृद्धिं परमां व्रजेत् ||1||
विजयेच्छु का सर्वोत्तमलाभ, अपराधियों के प्रति क्षमा से हानि :
न पुण्यपुरुषापचयः क्षयो हिरण्यस्य धान्यापचयो व्ययः शरीरस्यात्मनो लाभ विच्छेद्येन सामिष क्रव्याद इव न परैरवरुध्यते ॥ 88 ॥ शक्तस्यापराधिषु या क्षमा सा तस्यात्मनस्तिरस्कार : 1189 ||
अन्वयार्थ :- ( पुण्यपुरुषाः ) अमात्यादि (अपचय:) हानि (हिरण्यस्य) सुवर्ण की (क्षयः) क्षति (धान्यस्य ) धान्य का (अपचयः) नाश (आत्मनः) अपने (शरीरस्य) शरीर का (व्ययः) नाश (लाभविच्छेद्येन) लाभ का अभाव होने से ( सामिषक्रव्याद्) मांसग्रहीत पक्षी (इव) समान (परै: ) दूसरे पक्षी द्वारा (न) नहीं (अवरुध्यते) रोका जाये | 188 || ( शक्तस्य) समर्थ का ( अपराधिषु) अपराधियों पर (या) जो (क्षमा) क्षमा करना (सा) वह (तस्य) उसके (आत्मनः ) स्वयं का ( तिरस्कार) अपमान है ।
विशेषार्थ शत्रु पर विजय प्राप्ति के इच्छुक राजा को इस प्रकार के राज्य व देश को पाने की इच्छा करना चाहिए जिससे कि उसके अमात्य - सचिव, सेनाध्यक्ष आदि प्रधान पुरुषों, कोष, अन्न तथा स्वयं उसके जीवन का नाश न होने पावे । तथा जिस प्रकार मांस खण्ड को मुंह में धारण करने वाले पक्षी को दूसरा पक्षी अवरुद्ध कर है उस प्रकार वह अन्य राजा द्वारा रोका न जा सके | 88 ॥ शुक्र का भी यही अभिप्राय है :
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स्वतंत्रस्य क्षयो न स्यात्तथा चैवात्मनोऽपरः येनलाभेन नान्यैश्च रुध्यते तं विचिन्तयेत् ॥1॥
जो नृपति शक्ति सम्पन्न होकर भी अपराधियों को क्षमा प्रदान करता है, उन्हें यथोचित दण्ड तिरस्कार होता है । अतः राजा को अपराधियों के प्रति क्षमाधारण नहीं करना चाहिए 1 186 है :
शक्तिमानपि यः कुर्यादपराधिषु च क्षमा स पराभवमाप्नोति सर्वेषामपि वैरिए
जो राजा दण्ड देने की क्षमता रखता हुआ भी अपराधियों क तिरस्कार प्राप्त करता है ।।1 ॥
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