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________________ करना चाहिए | 182 ॥ गुरु ने कहा है : नीति वाक्यामृतम् वृद्धिं गच्छेद्यतः पाश्र्वत्तं प्रयत्नेन तोषयेत् । अन्यथा जायते शंका रणगोपाद्धिगर्हणा ॥ 1 ॥ अर्थ :- जिसकी सहायता से राजा की वृद्धि हुई हो उसको उसे सन्तुष्ट करना योग्य है । विजयेच्छु दोनों पक्ष से वेतन पाने वाले गुप्तचरों के स्त्री-पुरुषों को अपने यहाँ सुरक्षित रखकर उन्हें शत्रु के देश में भेजे, ताकि वे वापिस आकर शत्रु की समस्त चेष्टा निवेदन करे 1183 | जैमिनी ने भी कहा है : विजिगीषु शत्रु का अपकार करके उसके शक्तिहीन परिवारों के लिए उसकी भूमि प्रदान कर उन्हें अपने आधीन करने का प्रयत्न करे, अथवा यदि वह विशेष वलिष्ठ हो तो उसे पीडित करे ।1841 नारद ने भी कहा है: गृहीतपुत्रदारांश्च कृत्वा चोभय वेतनान् । प्रेषयेद्वैरिणुः स्थाने येन तच्चेष्टितं लभेत् ॥1॥ परं युद्धे तद्‌भूपिल्लस्य गोत्रिणः । दातव्यात्मवशो यः स्यान्नान्यस्य तु कथंचन ॥ ॥1॥ विजयेच्छु अपने शत्रु प्रतिद्वन्दी का तभी विश्वास करे जबकि वह शपथ करे अथवा किसी विश्वस्त की साक्षी करावे । गवाही उपस्थित करे । अथवा उसके आमात्यादि प्रधान पुरुष उसके द्वारा अपने पक्ष में मिला लिये गये हों 1185 ॥ गौतम ने भी कहा है : शपथैः कोशपानेन महापुरुष वाक्यतः I प्रतिभूरिष्टसंग्रहाद्रिपोविश्वसतां व्रजेत् ॥1 ॥ यदि शत्रु देश पर आक्रमण करने से सहस्र मोहरें (स्वर्णमुद्रायें ) प्राप्त होती हों परन्तु अपने देश की सौ100 मुद्राओं की हानि होती तो उस राजा का कर्त्तव्य है कि शत्रु पर आक्रमण न करे | 186 ॥ भृगु का भी यही अभिप्राय है : पुरस्तात् भूरिलाभेऽपि पश्चात्कोषोऽल्पको यदि । तद्यात्रा नैव कर्तव्यातत्स्वल्पोऽप्यधिको भवेत् ॥11 ॥ अर्थ :- यदि शत्रु पर आक्रमण कर संग्राम में प्रभूत लाभ हो, परन्तु स्वयं का या अपने देश की अल्प भी हानि होती हो तो उससे युद्ध नहीं करना चाहिए । शत्रु विजय का इच्छुक संग्राम भूमि में उतर जाय, पश्चात् प्रजा यदि तनिक भी कुपित हो जाय तो उस 544
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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