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| नीति वाक्यामृतम्
अर्थात् मित्र की प्राप्ति होना श्रेष्ठ है । मित्र की अपेक्षा सुवर्ण का लाभ श्रेष्ठतर है और सुवर्णपेक्षा भी भूमिलाभ श्रेष्ठतम M है । अत: विजय के अभिलाषी को भूमि प्रास करने का प्रयत्न करना चाहिए 179॥ गर्ग ने भी कहा है :
उत्तमो मित्र लाभस्तु हे मलाभस्ततोवरः । तस्माच्छे ष्ठतरं चैव भूमिलाभं समाश्रयेत् ।।1॥
अर्थ विशेष नहीं । चूंकि भूमि यदि प्राप्त हो जाती है तो सुवर्ण - धन सुलभता से मिल ही जायेगा । और सुवर्ण होने पर मित्र प्राप्त होता है । इसीलिए भूमि लाभ सर्वश्रेष्ठ कहा है 1180 ॥ शुक्र महोदय भी यही कहते हैं :
न भूमि न च मित्राणि कोशनष्टस्य भूपतेः ।
द्वितीयं तद्भवेत्सद्यो यदि कोशो भवेद् गृहे 11॥ अर्थ :- जिस नृपति के पास खजाना नहीं है उसके पास न मित्रों की मण्डली हो सकती है और न भूमि की प्राप्ति ही और जो भरपूर खजाना रखता है उसे मित्र व भूमि दोनों ही का लाभ होता है ।।1
यदि कोई सत्पुरुष शत्रु के साथ मित्रता का व्यवहार चाहता है तो उसे सोच-समझकर विवेक पूर्वक उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार करे कि वह उसके द्वारा ठगा न जाय 181॥ शुक्र ने भी कहा है :
पर्यालोचं बिना कुर्यायो मैत्री रिपुणा सह ।
स वंचनामवाप्नोति तस्य पाश्र्वादसंशयः ॥1॥ अर्थात् बिना विचारे शत्रु के साथ मित्रता करने वाला नियम से उसके द्वारा वंचित किया जाता है I ॥ विजिगीषु का निन्दा की कारण, शत्रु चेष्टा ज्ञात करने का उपाय, शत्रु निग्रह के उपरान्त विजयी का कर्तव्य, प्रतिद्वन्दी के विश्वास के साधन, चढ़ाई न करने का अवसर :
गूढोपायेन सिद्धकार्यस्यासंवित्ति-करणं सर्वा शंकांदुरपवादं च करोति 182॥ गृहीतपुत्रदारानुभयवेतनान् कुर्यात् ।183 ॥ शत्रुमपकृत्य भूदानेन तदायादानात्मनः सफलयेत् क्लेशयेद्वा 1184॥ पर विश्वास-जनने सत्यं शपथः प्रतिभूः प्रधानपुरुषपरिग्रहो वा हेतुः ।।85॥ सहस्त्रैकीयः पुरस्ताल्लाभः शतकीयः पश्चात्कोप इति न यायात् ।186 ॥ सूचीमुखा हाना भवन्त्यल्पेनापि सूचीमुखेन महान् दोरकः प्रविशति 1187॥
विशेषार्थ:-जिस शत्रु ने सन्धि कर ली है वह विजेता के प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर उसके प्रति विश्वस्त नहीं होता । यदि विजयी राजा उसका यथोचित स्वागत-सम्मान नहीं करे तो उसके मन में अनेक शंकाएँ उत्पन्न होती हैं । अभिप्राय यह है कि वह सोचता है कि मेरे द्वारा उपकृत यह राजा पहले तो मुझसे प्रेमालाप करता था, मेरा सम्मान भी करता था, उचित व्यवहार था परन्तु अब प्रतिकूल रहता है इससे विदित होता है कि मेरे शत्रु से इनकी मित्रता हो गई है । इसके अतिरिक्त लोक निन्दा भी होगी क्योंकि लोग कहेंगे कि यह अपने स्वामी की सेवा सही नहीं करता इसीसे इसके विरुद्ध चलता है । यह बड़ा ही कृतघ्न है । अतः विजिगीषु को उसकी सेवा-सुश्रुषा ।
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