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- नीति वाक्यामृतम् । वधस्तु कि यते यत्र परिक्लेशो वा रिपोः अर्थस्य ग्रहणं भूरिदण्डः स परिकीर्तितः ॥1॥
अर्थ विशेष नहीं है।
शत्रु के पास से आये हुए व्यक्ति का अति सूक्ष्म, विवेकनी बुद्धि से परीक्षण करना चाहिए । पूर्ण परीक्षित करने पर सही सिद्ध हो तो उसका अनुग्रह करना चाहिए अन्यथा नहीं । अपरिक्षित का विश्वास नहीं करना चाहिए 1176 || भागारे ने कहा है :
शत्रोः शकाशतः प्राप्तं सेवार्थ शिष्ट सम्मतम् । परीक्षा तस्य कृत्वाथ प्रसादः क्रियते ततः ।।1।।
दृष्टान्त द्वारा स्पष्टीकरण एवं शत्रु के निकट सम्बन्धी गृहप्रवेश से हानि :
किमरण्यजमौष धं न भवति क्षेमाय 117॥ गृह प्रविष्ट कपोत इव स्वल्पोऽपि शत्रु सम्बन्धो लोकस्तंत्रमुद्वासयति ॥18॥
विशेषार्थ :- क्या वीहड़ वन प्रदेश में उत्पन्न हुई औषधि रोग को कल्याणकारी नहीं होती ? होती ही है । इस प्रकार शत्रु के यहाँ से आया हुआ व्यक्ति भी कल्याणकारी हो सकता है 1177 । गुरु ने भी कहा है
परोऽपि हितवान् बन्धुर्वन्धुरप्यहितः परः ।
अहितो देहजो व्याधिर्हि तमारण्यमौषधम् ॥1॥ अर्थ :- जिस प्रकार व्याधि-रोग शरीर में है और वह पीड़ाजनक है, औषध जंगल-अरण्य में दूर होने पर भी हितकर होती है उसी प्रकार अहित-चिन्तक बन्धु भी शत्रु व हितचिन्तक शत्रु भी बन्धु माना जाता है ।
जिस प्रकार गृह में प्रविष्ट हुआ पारावत (कबूतर) मकान को उजाड देता है, उसी प्रकार शत्रु दल का अति लघु व्यक्ति भी विजयेच्छु के तन्त्र (सैन्य) को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है । वादरायण ने लिखा है :
शत्रुपक्ष भवोलोकः स्तोकोऽपि गृहमाविशेत् ।
यदा तदा समाधत्ते तद्गृहं च कपोतवत् ॥1॥ उत्तम लाभ, भूमिलाभ की श्रेष्ठता, मैत्रीद्योतक शत्रु के प्रति कर्तव्य :
मित्रहिरण्यभूमिलाभानामुत्तरोत्तर लाभः श्रेयान् 179॥ हिरण्यं भूमिलाभाद् भवति मित्रं च हिरण लाभादिति 1180॥ विशेष पाठ भी है - स्वयमसहायश्चेत् भूमिहिरण्य लाभायालं भवति तदा मित्रं गरीयः ।।॥ सहानुयायि मित्रं स्वयं वास्थास्नु भूमित्राभ्यां हिरण्यं गरीयः ।।2। शत्रोमित्रत्वकारणं विमृश्च तथा चरेद्यथा न वज्च्यते 181॥
विशेषार्थ :- सुहृद्, सुवर्ण एवं भूमि इन तीनों का लाभ होने पर उत्तरोत्तर वस्तु विशेष कल्याणकारी है ।
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