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________________ नीति वाक्यामृतम् शत्रु निग्रह से लाभ, नैतिक पुरुष का कर्त्तव्य, अग्रेसर होने से हानि : अतिक्रम्यवर्तिषु निग्रहं कर्तुः सर्पादिव दृष्टप्रत्यवायः सर्वोऽपि विभेति जनः ।।90 ।। अनायकां बहुनायकां वा सभां न प्रविशेत् 1191 ॥ गणपुरश्चारिणः सिद्धे कार्ये स्वस्य न किंचित् भवत्यसिद्धे पुनः ध्रुवमपवादः ।192 ॥ अन्वयार्थ :- (अतिक्रम्यवर्तिषु) विपरीत को (निग्रहम्) दण्डित (कर्तुः) करने वाले का (सात) सर्प से (दृष्टप्रत्यवाय:) दंशित के अपाय (इव) समान (सर्वाः) सभी (अपि) भी (जन:) लोक (विभेति) इरते हैं 11901 (अनायकाम्) प्रधान रहित (वा) अथवा (बहुनायकाग अधिक नायकों की (सभाम् ) सभा में (न) नहीं (प्रविशेत) प्रवेश करे 191 ॥ (गणपुरश्चारिणः) गण का मुखिया (सिद्ध कार्ये) कार्य सिद्ध होने पर (स्वस्य) स्वयं का (न) नहीं (किंचित्) कुछ भी (भवति) होता है (पुनः) फिर यदि (असिद्धे) कार्य न हो तो (ध्रुवम्) निश्चय से (अपवादः) अपवाद ... विशेषार्थ :- जो राजा अपराधियों को यथोचित्त दण्ड देने में कठोरता अपनाता है उससे सभी लोग भयभीत रहते हैं जिस प्रकार सर्प के डसने के भय से जनता भयातुर रहती है । अर्थात् कोई भी अपराध नहीं करता 190॥ भागुरि ने कहा है : अपराधिषु यः कु र्यान्निग्रहं दारुणं नृपः । तस्माद्विभेति सर्वोऽपि सर्व संस्पर्शनादिव |1॥ A . बुद्धिमान, नीतिज्ञ पुरुष को इस प्रकार की सभा में जहाँ कोई नायक न हो अथवा बहुत नायक हों प्रवेश नहीं करना चाहिए 119111 जन समुदाय या राजसभा में विवेकी पुरुष को अग्रेसर-नेता या मुखिया नहीं बनना चाहिए 1 क्योंकि कार्य सिद्धि होने पर स्वयं को कुछ मिलने वाला नहीं और यदि असिद्धि हो गई तो निश्चय से अपवाद का शिकार बनना | ही पड़ता है । सभी सभासद कहेंगे इसी मूर्ख ने बोलकर सारा काम बिगाड दिया 192 || नारद ने भी कहा ता, उसका यणA/कहा बहूनामग्रगो भूत्वा यो बूते न नतं परः । तस्य सिद्धी नो लाभः स्यादसिद्धौ जनवाच्यता 1॥ दूषित राजसभा, प्राप्त धन के विषय में, व धनार्जन का उपाय : सा गोष्ठी न प्रस्तोतव्या यत्र परेषामपायः ॥१३॥ गृहागतमर्थ के नापि कारणेन नावधीरयेद्यदैवार्थगमस्तदैव सर्वातिथि नक्षत्र ग्रहबलम् ।।94 ।। गजेन गजबन्धनभिवार्थेनार्थोपार्जनम् ।।95 ।। विशेषार्थ :- वह सभा प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती, जहाँ आये हुए सभासदों, के साथ पक्षपात का व्यवहार किया जाय । अर्थात् प्रयोजन सिद्धर्य आगत सत्पुरुषों की मान्यता न हो उस सभा में नहीं जाना ही श्रेष्ठ है ।।93 ॥ जैमिनि ने कहा है : 546
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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