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नीति वाक्यामृतम्
जब विजिगीषु को विदित हो कि आक्रमणकारी शत्रु उसके साथ युद्ध करने को पूर्ण सन्नद्ध है उस समय उसे द्वैधीभाव नीति को अवश्य अपनाना चाहिए । अर्थात् यदि शत्रु निर्बल है तो युद्ध करे और प्रबल है तो सन्धि कर ले । गर्ग ने भी लिखा है :
यद्यसौसन्धिमादातुं युद्धाय कुरुते क्षणम् । निश्चयेन तदातेन सहसन्धिस्तथा रणम् ॥॥1॥
दोनों बलिष्ठ विजिगीषुओं के मध्यवर्ती शत्रु, सीमाधि पति विजिगीषु का कर्त्तव्य भूमिफल, भूमि देने से हानि, चक्रवर्ती होने का कारण तथा वीरता से लाभ :
बलद्वयमध्यस्थितः शत्रुरूभयसिंह मध्यस्थितः करीब भवति सुखसाध्यः 1164 || भूम्यर्थिनंभूफल प्रदानेन संदध्यात् 1165 || भू फल फलदानमनित्यं परेषु भूमिर्गता गतैत्र 1166 ॥ अवज्ञयापि भूमावारोपितस्तरुर्भवति वद्धतलः 1167 || उपायोपशविक्रमोऽनुरक्त प्रकृतिरल्पदेशोऽपि भूपतिर्भवति सार्वभौमः ॥168 ॥ न हि कुलागता कस्यापि भूमिः किन्तु वीर भोग्या वसुन्धरा 169 ॥
अन्वयार्थ (शत्रुः) रिपु (बलद्वयमध्यस्थितः ) दो शत्रुओं के बीच (उभयसिंहमध्यस्थितः ) दो शेरों के मध्य (करि:) हाथी ( इव) समान ( सुखसाध्यः) सुख से जीता जा सकता है 1164 ||
विशेषार्थ :- दो जीतने के इच्छुकों के मध्य में घिरा शत्रु उसी प्रकार सरलता से जीता जा सकता है जिस प्रकार दो सिंहों के मध्य गज को सरलता से नष्ट कर दिया जाता है 1164 11 शुक्र ने कहा है :
सिंहयोर्मध्ये यो हस्ती सुखसाध्यो यथाभवेत् । तथा सीमाधिपोऽन्येन विगृहीतो वशो भवेत् ॥1॥
जिस समय कोई सीमाधिपति शक्तिशाली हो और विजेच्छु की भूमि हड़पना चाहता हो तो उसे भूमि से उत्पन्न होने वाली फसल देकर शान्त कर देना चाहिए न कि भूमि देना । गुरु ने कहा है 1165 ॥ :सीमाधिपो बलोपेतो यदाभूमिं प्रयाचते 1 तदातस्मै फलं देयं भूमेनंद धरां निजाम् ॥1॥
अर्थात् सीमाधिपति के बलिष्ठ होने पर उसे भूमि में उत्पन्न अन्न देकर शान्त करना चाहिए न कि भूमि देकर 1165 |
भूमि में उत्पन्न धान्य देने का अभिप्राय यह है कि वह अनित्य होता है पर को दे देने पर उसे उसके पौत्रादि नहीं भोग सकते । भूमि देने पर वह पुनः हाथ में आना दुर्लभ ही नहीं असंभव भी हो सकती है 1166 ॥ गुरु विद्वान ने भी कहा है :
भूमिपस्य न दातव्या निजा भूमिर्वलीयसः । स्तोकापि वा भयं चेत् स्यात्तस्माद्देयं च तत्फलम् ॥11 ॥
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