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नीति वाक्यामृतम्
अन्य राजा की सहायता लेना चाहता है तो उसका यह कार्य उसी प्रकार का समझना चाहिए कि जैसे कोई नदी प्रवाह में बहता हुआ मनुष्य डूबते हुए अन्य व्यक्ति का सहारा ले । अर्थात् जो स्वयं डूब रहा है वह दूसरे का कैसे रक्षण कर सकता है ? नहीं कर सकता । अतः क्षीण शक्ति नृपति को बलिष्ठ और स्थिर व्यक्ति का आश्रय लेना चाहिए | 158 ॥ नारद ने कहा :
बलं बलाश्रितेनैव सह नश्यति निश्चितम् । नीयमानो यथा नद्यां नीयमानं समाश्रितः ।।1 ॥
स्वाभिमानी को मरण वरण करना श्रेष्ठ है, परन्तु पर की इच्छापूर्वक अपने को बेचना उत्तम नहीं । संग्राम भूमि में वीर सुभट को शत्रु को आत्मसमर्पण करना योग्य नहीं हैं । पराजय स्वीकार नहीं करना चाहिए ||59 ॥ नारद कहते हैं :
वरं वनं वरं मृत्युः साहंकारस्य भूपतेः । न शत्रो संश्रयाद्राज्यं...... कार्यं कथंचन ।।1 ॥
शत्रु को आत्मसमर्पण की अपेक्षा मरना श्रेयस्कर है ।।59 ॥
यदि भविष्यकाल में शत्रु द्वारा किसी प्रकार के कल्याण की संभावना हो तो पराजय स्वीकार करना अर्थात् आधीनता स्वीकार करना श्रेष्ठ है ||60| हारीत ने कहा है :
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परिणामं शुभं ज्ञात्वा शत्रुज: सांश्रयोऽपि च । कस्मिंश्चिद्विषये कार्यः सततं न कथंचन ॥॥1॥
अर्थात् प्रयोजनवश शत्रु का आश्रय भी कल्याणकारी होता है 1160 |
जिस प्रकार अचानक निधिकोष प्राप्त हो जाय तो उसी क्षण स्वीकार कर लिया जाता है, उसी प्रकार राजकर्मचारियों को राज्य सम्बन्धी कार्यों को अविलम्ब सम्पादित करना चाहिए 1161 || गौतम विद्वान ने भी कहा
निधान दर्शने यद्वत्कालक्षेपो न कार्यते 1 राजकृत्येषु सर्वेषु तथा कार्यः सुसेवकैः ।।1 ॥
शरद्कालीन मेघों की भाँति राजकार्य भी सहसा आ उपस्थित होते हैं । अतएव सन्धि एवं विग्रह सम्बन्धी कार्यों के अतिरिक्त अन्य कार्यों को यथाशीघ्र सम्पादित कर लेना चाहिए । सन्धि विग्रह में ऊहापोह विचार विमर्श करना चाहिए । अन्य कार्यों में नहीं 1162 || गुरु विद्वान ने भी कहा है :
राजकृत्यं मचिन्त्यं यदूकस्मादेव जायते 1 मेघवत् तत्क्षणात्कार्यं मुक्त्यैकं सन्धिविग्रहम् ॥1॥
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