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________________ नीति वाक्यामृतम् गुण युक्तोऽपि भूपालोऽपि यायाद्विद्विषोपरि । योतेन हि राष्ट्रस्य बहवः शत्रवोऽपरे ।।1।। जो नृपति प्रथम अपने देश की सुरक्षा न करके शत्रु पर आक्रमण करता है उसका यह कार्य नग्न व्यक्ति के सिर पर पगड़ी बांधने के समान है । क्योंकि गाड़ी मात्र से नाग की नग्नता का रक्षण नहीं हो सकता, उसी प्रकार राज्य की रक्षा न कर शत्रु पर हमला करने से उसे विपत्तियों से छुटकारा नहीं मिल सकता 155 ॥ विदुर ने भी कहा है : ___ य एव यत्नः कर्तव्यः परराष्ट विमर्दने । स एव यलः कर्त्तव्यः स्वराष्ट्र परिपालने ॥ अपना सैन्य व कोष बल निर्बल है और बलवान शत्रु व्यसनों से रहित है - सदाचारी है तो उसके साथ सन्धि करना योग्य है उसके प्रति आत्मसमर्पण कर देना चाहिए । इस प्रकार करने से वह निःशक्त भी सशक्त हो जाता है जिस प्रकार बहुत एक-एक तन्तुओं को एकत्रित कर उससे रस्सी बनाने पर वह मजबूत हो जाती है ।56 ॥ गुरु ने भी कहा है : स्याचदा शक्तिहीनस्तु विजिगीषु हि वैरिणः । । संश्रयीत तदा धान्यं बलाय व्यसनच्युतात् ॥ शक्तिहीन व चञ्चल के आश्रय से हानि, स्वाभिमानी का कर्तव्य, प्रयोजनवश विजिगीषु का कर्तव्य, राजकीय कार्य व द्वैधीभाव : बलवद्भयादबलवदाश्रयणं हस्तिभयादेरण्डाश्रयणमिव 1157 ॥स्वयमस्थिरेणास्थिराश्रयणं नद्यां वहमानेन बहमानस्या श्रयणमिव 1158॥ वरं मानिना मरणं न परेच्छानुवर्तनादात्मविक्रयः 1159॥ आयति कल्याणे सति कस्मिंश्चित्सम्बन्धे परसंश्रयः श्रेयान् ॥6॥ निधानादिव न राजकार्येषु कालनियमोऽस्ति ।।61॥ मेघवदुत्थानं राजकार्याणामन्यत्र च शत्रोः सन्धिविग्रहाभ्याम् ।।62॥ द्वैधीभावं गच्छेद् यदन्योवश्यमात्मना सहोत्सहते 153 ॥ विशेषार्थ :- अपने से अधिक बलवान शत्रु के भय से निर्बल का सहारा लेना, गज के भय से भीत हो ऐरण्ड के वक्ष पर आश्रय लेने के समान है। ऐरण्ड का वक्ष इतना कमजोर होता है कि मनुष्य का वजन सहन नहीं कर सकता, फिर गज की वलवत्ता क्या उसे जड़ से उखाड़ नहीं फेंक देगी ? फिर रक्षण ही क्या हुआ? गज उसे गिरायेगा ही और उसे मृत्यु का ग्राह्य बनाकर ही रहेगा 1157 ॥ भागुरि ने भी कहा है : स बलाढ्यस्य बलाद्धीनं यो बलेन समाश्रयेत् । स तेन सहनश्येत यथैरण्डाश्रयो गजः ॥1॥ जिस समय कोई विजिगीषु राजा शत्रु द्वारा सताया जाता है और वह अपने समान शत्रु द्वारा सतृप्त किसी म 537
SR No.090305
Book TitleNiti Vakyamrutam
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorNathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages645
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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